नमस्कार ! अलोकप्रियता कभी भी हो सकती है। आज लोग प्रक्टिकल भी है और आशावादी भी। मोदी जी की जो आंधी चली थी उसमे आशावाद का बड़ा योगदान था।, मोदी जी आशावाद का प्रतीक थे और अब भी है। उनके भाषणों में समस्याओं के साथ साथ समाधान का समावेश रहता था लोग प्रेरित भी हुए। पर दिल्ली के नतीजे उन्ही आशावादी लोगों के प्रक्टिकल होने का सबूत है जिन्होंने मोदी जी को बाजे गाजे के साथ सत्ता सौपी थी। आज लोगों को काम करने के वादे के साथ साथ काम करते हुए भी दिखना चाहिए वरना उनमे एक संशय पैदा होते देर नहीं लगाती।
शास्त्रों एवं इतिहास की बात करें तो अहंकार भारतीयों को बिलकुल पसंद नहीं है इसी लिए कांग्रेस युग का अंत हुआ। बीजेपी भी सभी ओर अपनी विजय पताका फहराते हुए जब दिल्ली पहुंची तो वो ही अहंकार दिखा जो कुछ महीनों पहले जनता नकार चुकी थी। एक छोटी सी पार्टी को कुचल डालने की ख्वाहिश और अतिआत्मविश्वास से अभियान से शुरुआत ही गलती रही। सारे सांसद जो अपने क्षेत्र की जनता के प्रतिनिधि है जनता को छोड़ कर दिल्ली में प्रचार को बुलाने पड़े यहाँ तक की करदाताओं के पैसे से काम करने वाले मंत्रियों का देश छोड़ कर दिल्ली में प्रचार करना किसी को नहीं भा रहा था। ताबूत में आख़री कील जब लगी जब खुद माननीय प्रधानमंत्री इसमें कूद पड़े।
आम आदमी पार्टी (आप) के कहीं से चुनाव न लड़ दिल्ली पर ध्यान केंद्रित करने को उनका डर मान लेना भी बड़ी गलती रही।आप ने ज़मीन पर खूब मेहनत की और क्युकी नीयत पर किसी को कभी शक नहीं था, लोगों का झुकाव स्वाभाविक था। ४९ दिन की सरकार के ताने मारने वाले शायद दिल्ली से बाहर वाले ही होंगे क्युकी दिल्लीवासियों को सरकार का वो ट्रेलर बहुत पसंद आया और वो पूरी फिल्म देखना चाह रहे थे। बीजेपी और आप के कार्यकर्ताओं में बहुत बड़ा अंतर है जो इस चुनाव में साफ़ हुआ। आप में ऐसा कोई कार्यकर्ता नहीं है जिसकी जीविका का साधन राजनीती है। कोई छात्र था , कोई दुकानदार , कोई नौकरी से कुछ समय की छुट्टी ले आया था , ऐसे लोगों के प्रति झुकाव स्वतः ही है।
भारतीयों को नकारात्मकता पसंद मानाने वालों के मुंह पर भी करारा तमाचा ही है क्युकी जहाँ एक तरफ अपने पद की गरिमा को ताक पर रख प्रधानमंत्री और मंत्री नकारात्मक भाषण दे रहे थे वहीँ वो जो झूठे और आधारहीन आरोप लगा रहे थे वो उनके खुद के परिप्रेक्ष में ज्यादा जंच रहे थे। पैसे का हिसाब मांगने के पहले अगर खुद के पैसों का हिसाब दे देते तो बात अलग होती। आप स्थिर दिखी और जनता से संवाद भी बखूबी किया वो भी बहुत कम पैसों में। किरण बेदी को अचानक एक ईमानदार चेहरे के रूप में लाना भी दिल्ली बीजेपी में ईमानदार नेताओं की शून्यता का परिचायक साबित हुई और फिर किरण बेदी का रवैया करेला दूजा नीम चढ़ा साबित हुआ।
राजनीतिक दलों को समझना होगा की जहाँ गरीब और मध्यम वर्ग आज़ादी के ६६ सालों बाद भी सड़क , पानी और बिजली जैसी समस्याओं से लड़ रहा है वहां व्यक्तिगत आरोप और जहरीली साम्प्रदायिकता का असर नहीं होता। ये वो ही लोग थे जिन्होंने मोदी जी को पूरा दिल्ली दिया था और अब भी वो ही है जो बीजेपी को ऐतिहासिक न्यूनतम सीट तक ले गई। जो हमारे मुद्दों की बात करके एक रोडमैप देगा उसे सत्ता देंगे , निचोड़ यही है। भूखे पेट भजन नहीं होते। मीडिया को पूरी तरह खोल के रख दिया फिर भी बड़ी बेशर्मी से आज भी भरमाने में लगी है। कितना डिसकनेक्ट है , कितनी दूरी है। अनुरोध ये ही है की अहंकार छोड़ दो , अब नहीं चलेगा। शायद इसी वजह से केजरीवाल ने जीतने के बाद अपने पहले भाषण में अहंकारी ना हो जाने का आवाह्न किया।
जितनी जल्दी समझे उतना अच्छा है देश के लिए वार्ना चुनाव और भी है।
धन्यवाद !
शास्त्रों एवं इतिहास की बात करें तो अहंकार भारतीयों को बिलकुल पसंद नहीं है इसी लिए कांग्रेस युग का अंत हुआ। बीजेपी भी सभी ओर अपनी विजय पताका फहराते हुए जब दिल्ली पहुंची तो वो ही अहंकार दिखा जो कुछ महीनों पहले जनता नकार चुकी थी। एक छोटी सी पार्टी को कुचल डालने की ख्वाहिश और अतिआत्मविश्वास से अभियान से शुरुआत ही गलती रही। सारे सांसद जो अपने क्षेत्र की जनता के प्रतिनिधि है जनता को छोड़ कर दिल्ली में प्रचार को बुलाने पड़े यहाँ तक की करदाताओं के पैसे से काम करने वाले मंत्रियों का देश छोड़ कर दिल्ली में प्रचार करना किसी को नहीं भा रहा था। ताबूत में आख़री कील जब लगी जब खुद माननीय प्रधानमंत्री इसमें कूद पड़े।
आम आदमी पार्टी (आप) के कहीं से चुनाव न लड़ दिल्ली पर ध्यान केंद्रित करने को उनका डर मान लेना भी बड़ी गलती रही।आप ने ज़मीन पर खूब मेहनत की और क्युकी नीयत पर किसी को कभी शक नहीं था, लोगों का झुकाव स्वाभाविक था। ४९ दिन की सरकार के ताने मारने वाले शायद दिल्ली से बाहर वाले ही होंगे क्युकी दिल्लीवासियों को सरकार का वो ट्रेलर बहुत पसंद आया और वो पूरी फिल्म देखना चाह रहे थे। बीजेपी और आप के कार्यकर्ताओं में बहुत बड़ा अंतर है जो इस चुनाव में साफ़ हुआ। आप में ऐसा कोई कार्यकर्ता नहीं है जिसकी जीविका का साधन राजनीती है। कोई छात्र था , कोई दुकानदार , कोई नौकरी से कुछ समय की छुट्टी ले आया था , ऐसे लोगों के प्रति झुकाव स्वतः ही है।
भारतीयों को नकारात्मकता पसंद मानाने वालों के मुंह पर भी करारा तमाचा ही है क्युकी जहाँ एक तरफ अपने पद की गरिमा को ताक पर रख प्रधानमंत्री और मंत्री नकारात्मक भाषण दे रहे थे वहीँ वो जो झूठे और आधारहीन आरोप लगा रहे थे वो उनके खुद के परिप्रेक्ष में ज्यादा जंच रहे थे। पैसे का हिसाब मांगने के पहले अगर खुद के पैसों का हिसाब दे देते तो बात अलग होती। आप स्थिर दिखी और जनता से संवाद भी बखूबी किया वो भी बहुत कम पैसों में। किरण बेदी को अचानक एक ईमानदार चेहरे के रूप में लाना भी दिल्ली बीजेपी में ईमानदार नेताओं की शून्यता का परिचायक साबित हुई और फिर किरण बेदी का रवैया करेला दूजा नीम चढ़ा साबित हुआ।
राजनीतिक दलों को समझना होगा की जहाँ गरीब और मध्यम वर्ग आज़ादी के ६६ सालों बाद भी सड़क , पानी और बिजली जैसी समस्याओं से लड़ रहा है वहां व्यक्तिगत आरोप और जहरीली साम्प्रदायिकता का असर नहीं होता। ये वो ही लोग थे जिन्होंने मोदी जी को पूरा दिल्ली दिया था और अब भी वो ही है जो बीजेपी को ऐतिहासिक न्यूनतम सीट तक ले गई। जो हमारे मुद्दों की बात करके एक रोडमैप देगा उसे सत्ता देंगे , निचोड़ यही है। भूखे पेट भजन नहीं होते। मीडिया को पूरी तरह खोल के रख दिया फिर भी बड़ी बेशर्मी से आज भी भरमाने में लगी है। कितना डिसकनेक्ट है , कितनी दूरी है। अनुरोध ये ही है की अहंकार छोड़ दो , अब नहीं चलेगा। शायद इसी वजह से केजरीवाल ने जीतने के बाद अपने पहले भाषण में अहंकारी ना हो जाने का आवाह्न किया।
जितनी जल्दी समझे उतना अच्छा है देश के लिए वार्ना चुनाव और भी है।
धन्यवाद !