गुरुवार, 31 जुलाई 2014

महंगाई देवी !

ये महंगाई असल में है क्या ? एक चुनावी मुद्दा या एक हक़ीक़त ? ये किन लोगों को प्रभावित करती है और उनका प्रतिशत क्या है?  एम बी ए करते वक़्त ये तो सिखाया गया की एक बिज़नेस को चलाने में क्या करना होता है और ग्राहक का मनोविज्ञान भी सीखा पर किसी ने ये न बताया था की आखिरकार ग्राहक ही है जो वस्तुओ के भाव में उथलपुथल से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। महंगाई उद्वेलित कर देती है जब वो खुद की जेब से चार बचाए पैसे छीन ले।  महंगाई सेक्युलर प्रवृत्ति की होती है , जात -पात से ऊपर उठ कर सब के साथ सामान व्यवहार करती है जो भी उपभोक्ता है। बड़ी हठी है ये , हर बार मतदान करने के बाद बेचारा उपभोक्ता सोचता है की अब ये कम हो ही जाएगी पर ये कभी न हो पाया न हमारे तात्कालिक राजनीतिक तंत्र को देख कर लगता है की कभी हो भी न  पाएगी।  महंगाई सर्वशक्तिमान है।

आजकल ये महंगाई एक अवसर भी हो चली है जिसकी दुहाई दे कर हमारे शहर में रिक्शा से लेकर अनाज तक सब महंगा हो चला है।  टमाटर की कमी है तो आलू भी महंगे हो चले हैं चाहे गोदामों में पड़ा पड़ा सड़  जाए पर किसी गरीब की थाली में पंहुचा तो महंगाई देवी नाराज़ हो जाएगी ।  एक लहर थी जो एतिहासिक  सरकार बना गई जहाँ  हर जन साधारण ने अपना योगदान दिया था , आजकल महंगाई की लहर है जिसमे समाज का हर जमाखोर - व्यापारी  वर्ग योगदान दे रहा है।  चुनाव में तो कोई ऑपोसिशन भी होता है पर इस महंगाई का कोई व्यापारी विरोध करे भी तो कैसे , यहाँ भी क्लीन स्वीप ही हो रहा है।जमाखोर महंगाई देवी के सच्चे अनुयायी हैं जो इसका शौर्य बनाए रखते है , जिनकी कृपा से सरकार के कुछ प्रतिशत बढ़ने के बाद ये अपनी ओर से कुछ जोड़ देते है और सीना ठोंक कर अधिकतम मुद्रित मूल्य से ज्यादा में दैनिक जीवन यापन करने की वस्तुए बेच रहे हैं।  बेचारा मीडिया कैसे इसे दिखाए आखिरकार ये टी आर पी का खेला  है।  क़ानून भी असहाय है , वैसे भी कहा जाता है की हमारे देश में कानून सिर्फ कुछ धनाढ्य और सत्ताधारियों के लिए ही है और महंगाई तो फिर भी सर्वोपरि है उसे कैसे कोई आंच आ जाए।

नेताओं के लिए महंगाई एक विरासत हो चुकी है जिसे हर सत्ताधारी आगे ले जाता है , सेंसेक्स का पारा चढ़ने को डेवलपमेंट का पैमाना मानाने वाले ये भूल गए की ये पैमाना तभी पॉज़िटिव में होता है जब महंगाई देवी अपने चरम पर हो। पता नहीं सब जमाखोर उद्यमियों पर कृपा बरसाने वाली महंगाई देवी सबसे बड़े उत्पादकों (किसान )से क्यों रूठी रहती है , बेचारा किसान आलू, टमाटर , अंनाज सब उत्पादित करता है और जब कड़ी मेहनत कर के फसल बेचने जाता है तो ८० रूपये प्रति  किलो वाले टमाटर का २ प्रति रूपये किलो भी दाम नहीं पाता और अपनी फसल आवारा मवेशियों को खिला के आ जाता है। ऐसा तो नहीं कि एक किसान अभी एक वोटर की श्रेणी से निकला नहीं है और उसे अभी सिर्फ अपनी कम राजनितिक समझ का उपयोग करके वोट देने के लिए आरक्षित रखा है?  उस बेचारे का नंबर शायद ही आएगा। किसान तो बस ये समझने की कोशिश में है की कैसे उसका प्यारा टमाटर उससे बिछड़ने के बाद वी आई पी हो जाता है ? कैसे उसके भाव बढ़ जाते हैं और इतराकर आसमान पे बैठ जाता है और उसे ही आँख दिखा कर चिढ़ाता है ? ये गणित समझाने की क्या कोई आवश्यकता है भी बेचारे किसान को ?

 राजनीतिज्ञों का कमाल भी तो देखिये , अपनी कुशलता का उपयोग कर उन्होंने दल समर्थकों की फौज खड़ी कर ली है जिन्हे देश से ऊपर दल और धर्म को रखने की सीख दी गई है और जो बड़ी बेशर्मी से पहले तो अपने दल का चुनावी प्रचार करते है और महंगाई देवी को मुद्दा बना कर वोटेभिक्षा मांगते हैं।  ये दल समर्थक कोई और नहीं इसी देश के वे नागरिक हैं जो इन्ही महंगाई देवी के सताए हैं पर जात -पात , धर्म के नाम की नकारात्मकता का मरहम प्राप्त ये लोग अपने अंधत्व का सम्पूर्ण प्रयोग कर महंगाई देवी की आरती करते दिख जाते हैं। इनकी शायद कोई आशा नहीं है , आशाहीन ये भक्त पुरानी सरकारों के पापों  के ढोल नगाड़े ले कर निकल पड़ते हैं।  महंगाई के प्रकोप से ये भी न बचपाए हैं पर क्या करें , अंध भक्ति के अँधेरे से जब धरातल के सत्य का प्रकाश आँखों पर पड़ता है तो कुछ समय तक कुछ दिखाई नहीं देता।

समय आएगा जब ये चौंधियाई आँखे कुछ देखेंगी पर मुझे डर है कहीं तब तक राजनितिक दल कोई नया नकारात्मकता का मरहम न इज़ाद कर ले। वैसे नया मरहम आ ही गया है , नफरत का। हमारे नेता लगातार  बयानबाजी कर नफरत के बीज बोए जा रहे है और हम अंधभक्त उसे सींचे जा रहे है और इस सिंचाई में हम कुछ देर के लिए ये भूल जाते हैं की ये महंगाई क्या बला है।   महंगाई देवी की संताने हमारे राजनितिक दल अपनी माँ की सेवा में तल्लीनता से जुटे हैं और चाहे सारे देश को रुग्ण होना पड़े ये अपनी माँ पर आंच न आने देंगे।

मेरे देश के लोगो से तो अच्छी ये महंगाई देवी है जो हमेशा निष्प्रभाव रहती है और सामान रूप से देश के नागरिकों के साथ व्यवहार करती है , कोई अछूता नहीं है इससे। ये कभी निष्क्रिय भी नहीं होती , जब हम जात -पात और धर्म के नाम पर इसे भूल कर अपनी मनुष्यता त्याग देते हैं तब भी हमारा परिवार महंगाई देवी की कृपा से अछूता नहीं रहता।  कुछ भी हो वक़्त ने हमें समझौते करना सीखा दिया है और सरकार ने इसके सिवा कोई रास्ता नहीं छोड़ा। अभी भक्ति जाप जारी है , और हम वो लोग हैं  जो २०० साल बाद कई पीढ़ियां निकलने के बाद समझे की हम गुलाम है और इस समझ के आते आते कई जानें गवां भी बैठे थे फिर जागे और एक हुए।

इस महंगाई देवी के पाश से निकलना आसान नहीं लगता क्युकी गांठे हमारे अपनों लगाईं हैं , जो जमाखोर व्यापारियों और हमारे चुने हुए भ्रष्ट व अपराधी नेताओं के रूप में हमारे बीच ही हैं।  पर उम्मीद है की एक दिन फिर हम एक होंगे और इस बिमारी से सदा के लिए छुटकारा  लेंगे।














गुरुवार, 24 जुलाई 2014

हम भारतीय !

हम भारतीय हैं।  परिभाषा के अनुसार तो सबसे संस्कारी , किसी भी धर्म , जाति  विशेष के लिए सदैव बाँहें फैलाए खड़े रहने वाले। वैसे भी वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत तो सैद्धांतिक तौर पर मानाने वाले हम भारतीयों की पहचान ही ये है की इसे किसी एक धर्म या जाति के रूप में न देख कर इनके एक समूह के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है और गज़ब का संतुलन रहा करता था सबके बीच। किसी ने कहा था कि भारत उत्सवों का देश है , हो भी क्यों न क्युकी इतने धर्मो एवं जातियों में से किसी न किसी का कोई त्यौहार हमेशा रहता ही है , तभी तो सौहाद्र की परिकल्पना की गई है।

हमारी आज़ादी को ६५ साल से ज्यादा हो चुके है और इस अंतराल में कई बार इस भारतीय परिभाषा को आहात करने की सफल कोशिश हुई है।  कहा जाता है फुट डालो शासन करो का सूत्र अँगरेज़ ले कर आए थे और गजब का उपयोग भी किया था।  क्युकी हम भारतीय गलतियों से सीखने का हर मौका गवाना अच्छे से जानते हैं इसलिए २०० साल की गुलामी के बाद भी एक नया वर्ग (नेता ,धर्म के ठेकेदार आदि ) इस सूत्र को उपयोग कर रहा है । हमें आज़ादी मिली थी क्युकी हम एक थे पर बाद में हमारे नेताओं  ने अंग्रेज़ो की अन्य विरासतों (रेल , कानून, अधोसंरचना  आदि ) के साथ साथ फुट डालने को भी आगे बढ़ाया और अब तक वे एक नफरत की चिंगारी सबके मन में जगाने में कामयाब भी रहे है।

इन ६७ सालों में हम क्या से क्या हो गए है , हमारा अपराधों , भ्रष्टाचार , अमानवता , स्त्री का अपमान को लेकर प्रतिरक्षात्मक रवैया बढ़ता ही जा रहा है। तभी तो हम एक अपराधी , भ्रष्टाचारी , बलात्कारी को अपना प्रतिनिधी बनाकर हम पर ही शासन करने के लिए चुन लेते है। नारी को शक्ति मान कर पूजा करने वाले हम भारतीयों का खून तब भी नहीं खौलता जब एक देवी का प्रतिनिधित्व करने वाली नारी की अस्मत पर हमारे पड़ोस में ही आंच आ जाती है और हम मूक एवं असहाय हो जाते हैं , और वहीं किसी नेता या अधर्म गुरु के बहकावे में आकर हम मासूमो का संहार करने से भी न चूकते हैं , हमेशा आडम्बर रुपी भड़काव के लिए तैयार .
कभी सीना ठोंक भ्रष्टाचार के खिलाफ न बोलेंगे और ये जानते हुए भी की ये पैसा कैसे और कहाँ तक जा रहा है हम उसे मिटाने की पहल करने के बजाए एक सरकारी नौकरी की इच्छा रखने लगते है ताकि शोषितों से हटकर शोषण करने वालों की सूचि में दर्ज हो जाएं।

नफरत और निराशा के ६७ साल के लगातार  डोज़ से अपराधो, अपमान , ठगी, धर्मान्धता के प्रति हमारी प्रतिरोधक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप आज कमज़ोर वर्ग (महिलाए ,बच्चे , गरीब ) इसकी आंच में झुलसना शुरू हो गया है और यदि हम भी कमज़ोरी की ओर इसी तरह अग्रसर रहे तो परिणाम भयानक होंगे। संगठन का न होना , धर्म की सही परिभाषा को न पहचानना एवं भारतियों की परिभाषा को न जानना ही कुछ मूल कारण हैं जो हमें कमजोर बनाए रखे है। इसी के उलट करजोर करने वाली शक्तियों न केवल मजबूत हुई है साथ ही साथ एक अहंकार भी ले चूका है जो की हमारी दुराचार के प्रति उपेक्षा का नतीजा है।

भारतीय होने पर गर्व भी अधिकतर वो ही करते हैं , जो देश पहले ही छोड़ चुके हैं और लौटने का न उद्देश्य है मंशा।  बस शोशल मीडिया पर देशभक्ति दिखादो। एक होने का समय बीता जा रहा है , कम  से कम  अपने बच्चो के मन में प्यार का बीज बोए नफ़रत का नहीं। नेताओं के साथ उनके अन्य पोस्टर बॉयज को पहचानना कहा ज्यादा मुश्किल है, साथियों को देख नेता का चरित्र पहचाना जा सकता है ।  खुद को ठगना कोई हमसे सीखे, बबूल का बीज बो कर हम आम की इच्छा नहीं रख सकते।
एकता में  शक्ति है , देर से सही जीत जाएंगे अगर साथ रहे अन्यथा हमेशा कथित एवं अकथित तौर पर गुलाम ही रहेंगे।  कृपया देश बचाएं!





शनिवार, 5 जुलाई 2014

नई सरकार का विश्लेषण !

चुनाव हो गए , नई सरकार भी बन गई।  अब समय आया कुछ करने का।  मनमाफिक सब होने के बाद लोग अपने काम पे लग गए और आशा की डोर नई सरकार के हाथों में सौप दी। मोदी जी का अपना अलग अंदाज़ भी है।  अच्छे दिन आ ही गए थे समझो , सब इंतजार कर रहे है।  पर ये क्या अभी ३० दिन हुए और विश्लेषण शुरू हो गया।  मीडिया अपने पुराने (दिल्ली वाले ) अंदाज़ में परिणामों को ढूंढने लगी और उसी दिल्ली सरकार  भांति नई सरकार समय की मांग करने लगी।

अचंभित करते वाली बात तो यह थी की वो ही बीजेपी जो दिल्ली सरकार से पहले दिन से परिणामो की मांग कर रही थी , आज उसी सरकार वाली दलीले दे रही थी।  पूत के पाँव पालने में देखने की पुरानी संस्कृति है हमारी , उसे कैसे भूल जाए , है न ? पर मै इसे ग़लत मानता हूँ , इस १ महीने में सिर्फ इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि  घोषणा पत्र में किये गए वादों के बाबद क्या कदम उठाए गए। कड़वी दवा तो हम भारतीय पिछले ६७ सालों से पी रहे है पर उसे और कड़वा करने का संकेत भी मिल गया।

हम सब को सिर्फ ये सोचना चाहिए की वो क्या मुद्दे थे जिनकी वजह से कांग्रेस को नकारा गया और कहीं का न छोड़ा। मेरे ख्याल से महंगाई, भ्रष्टाचार, परिवारवाद , अहंकार और अराजकता इनमे से कुछ हैं। अगर नई सरकार कड़वी दवा के साथ साथ कुछ कड़वे कदम उठा कर इन कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ही कुछ संकेत दे देती तो बहुत कुछ दिखाई देने लगता। साथ ही साथ ये भी पता चल जाता की भारत के आम आदमी में ऐसी क्या बिमारी है जो उसे अपने सामान्य जीवन की जद्दोजहत में लग गई , तो बड़ा अच्छा होता। मुझे नहीं लगता की देश में भ्रष्टाचार के द्वारा जनित धनाढ्यों को आलू या प्याज की कीमतों से कोई फर्क पड़ता होगा , ना ही मुझे लगता है की पेट्रोल या डीज़ल के दाम बढ़ने उनके जीवन में कोई बदलाव आएगा। देश के आगे बढ़ने से पहले महंगाई का आगे बढ़ने वाला क्या फार्मूला है , शायद पहले प्रति व्यक्ति आय बढ़ती तो ठीक रहता।

विश्लेषण होना बड़ी अच्छी बात है पर क्या पैमाना हो ये बहुत ज़रूरी बात है जिसे ध्यान में रखे बिन आगे बढ़ाना खतरनाक होगा।  हमारा पूरा तंत्र सड़ांध मार रहा है , मोटी चमड़ी वाले सरकारी कर्मचारी जनता को लुटे जा रहे है। जनहित  योजनाओ का पूरा पैसा उनके घरो और शादियों में लग रहा है।  पुलिस रिपोर्ट लिखने का फैसला फरियादी की जेब के आकार और आरोपी के ओहदे को ध्यान में रख कर करती है, जनता के रक्षक ही भक्षक है।  और जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने  पीछे का उद्देश्य किससे छुपा है।

अच्छे दिन जनता तक पहुंचेंगे या सिर्फ कागजो पर रहेंगे ये इन लोगो पर निर्भर करेगा.  योजनाओं  के पहले इच्छाशक्ति और इस तंत्र की सफाई की ओर ठोस  कदम ये सुनिश्चित करेगा की ये अच्छे दिन किसके आने वाले है , ग़रीब  के या हमेशा की तरह भ्रष्टो के।

विश्लेषण शुरू हो चूका है , कभी टेलीविजन पर तो कभी सामान खरीदते या उसके खर्च की तुलना करते हुए , कभी किसी सरकारी दफ़्तर के काम करने के तरीकों पर तो कभी हमारी अपनी पुलिस के व्यवहार पर।  कुल मिला कर नई सरकार के हमारे जीवन पर अच्छे या बुरे प्रभाव से अच्छा पैमाना तो कुछ है नहीं , बस शुरू चुके है लोग। नई सरकार को समय मांगने की कोई ज़रुरत भी नहीं है , लोग वैसे भी ५ साल दे चुके हैं।  पर जैसा की मोदी जी समझते हैं और उन्होंने कहा भी है की ये सरकार उम्मीदों का बोझ लेकर चल रही है , रास्ता कठिन है और शरीर (देश ) बीमार है , बस कड़वी दवा का असर रोग पर भी हो जाए तो बात ही क्या।  तब तो अच्छे दिन आ ही जाएंगे।

यहाँ "सरकार का बदलाव" नहीं, "बदलाव की सरकार" की आशा में बंधे है हम सब .