शनिवार, 5 जुलाई 2014

नई सरकार का विश्लेषण !

चुनाव हो गए , नई सरकार भी बन गई।  अब समय आया कुछ करने का।  मनमाफिक सब होने के बाद लोग अपने काम पे लग गए और आशा की डोर नई सरकार के हाथों में सौप दी। मोदी जी का अपना अलग अंदाज़ भी है।  अच्छे दिन आ ही गए थे समझो , सब इंतजार कर रहे है।  पर ये क्या अभी ३० दिन हुए और विश्लेषण शुरू हो गया।  मीडिया अपने पुराने (दिल्ली वाले ) अंदाज़ में परिणामों को ढूंढने लगी और उसी दिल्ली सरकार  भांति नई सरकार समय की मांग करने लगी।

अचंभित करते वाली बात तो यह थी की वो ही बीजेपी जो दिल्ली सरकार से पहले दिन से परिणामो की मांग कर रही थी , आज उसी सरकार वाली दलीले दे रही थी।  पूत के पाँव पालने में देखने की पुरानी संस्कृति है हमारी , उसे कैसे भूल जाए , है न ? पर मै इसे ग़लत मानता हूँ , इस १ महीने में सिर्फ इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि  घोषणा पत्र में किये गए वादों के बाबद क्या कदम उठाए गए। कड़वी दवा तो हम भारतीय पिछले ६७ सालों से पी रहे है पर उसे और कड़वा करने का संकेत भी मिल गया।

हम सब को सिर्फ ये सोचना चाहिए की वो क्या मुद्दे थे जिनकी वजह से कांग्रेस को नकारा गया और कहीं का न छोड़ा। मेरे ख्याल से महंगाई, भ्रष्टाचार, परिवारवाद , अहंकार और अराजकता इनमे से कुछ हैं। अगर नई सरकार कड़वी दवा के साथ साथ कुछ कड़वे कदम उठा कर इन कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ही कुछ संकेत दे देती तो बहुत कुछ दिखाई देने लगता। साथ ही साथ ये भी पता चल जाता की भारत के आम आदमी में ऐसी क्या बिमारी है जो उसे अपने सामान्य जीवन की जद्दोजहत में लग गई , तो बड़ा अच्छा होता। मुझे नहीं लगता की देश में भ्रष्टाचार के द्वारा जनित धनाढ्यों को आलू या प्याज की कीमतों से कोई फर्क पड़ता होगा , ना ही मुझे लगता है की पेट्रोल या डीज़ल के दाम बढ़ने उनके जीवन में कोई बदलाव आएगा। देश के आगे बढ़ने से पहले महंगाई का आगे बढ़ने वाला क्या फार्मूला है , शायद पहले प्रति व्यक्ति आय बढ़ती तो ठीक रहता।

विश्लेषण होना बड़ी अच्छी बात है पर क्या पैमाना हो ये बहुत ज़रूरी बात है जिसे ध्यान में रखे बिन आगे बढ़ाना खतरनाक होगा।  हमारा पूरा तंत्र सड़ांध मार रहा है , मोटी चमड़ी वाले सरकारी कर्मचारी जनता को लुटे जा रहे है। जनहित  योजनाओ का पूरा पैसा उनके घरो और शादियों में लग रहा है।  पुलिस रिपोर्ट लिखने का फैसला फरियादी की जेब के आकार और आरोपी के ओहदे को ध्यान में रख कर करती है, जनता के रक्षक ही भक्षक है।  और जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने  पीछे का उद्देश्य किससे छुपा है।

अच्छे दिन जनता तक पहुंचेंगे या सिर्फ कागजो पर रहेंगे ये इन लोगो पर निर्भर करेगा.  योजनाओं  के पहले इच्छाशक्ति और इस तंत्र की सफाई की ओर ठोस  कदम ये सुनिश्चित करेगा की ये अच्छे दिन किसके आने वाले है , ग़रीब  के या हमेशा की तरह भ्रष्टो के।

विश्लेषण शुरू हो चूका है , कभी टेलीविजन पर तो कभी सामान खरीदते या उसके खर्च की तुलना करते हुए , कभी किसी सरकारी दफ़्तर के काम करने के तरीकों पर तो कभी हमारी अपनी पुलिस के व्यवहार पर।  कुल मिला कर नई सरकार के हमारे जीवन पर अच्छे या बुरे प्रभाव से अच्छा पैमाना तो कुछ है नहीं , बस शुरू चुके है लोग। नई सरकार को समय मांगने की कोई ज़रुरत भी नहीं है , लोग वैसे भी ५ साल दे चुके हैं।  पर जैसा की मोदी जी समझते हैं और उन्होंने कहा भी है की ये सरकार उम्मीदों का बोझ लेकर चल रही है , रास्ता कठिन है और शरीर (देश ) बीमार है , बस कड़वी दवा का असर रोग पर भी हो जाए तो बात ही क्या।  तब तो अच्छे दिन आ ही जाएंगे।

यहाँ "सरकार का बदलाव" नहीं, "बदलाव की सरकार" की आशा में बंधे है हम सब .





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