शुक्रवार, 21 मार्च 2014

किसकी सोच ?




आजकल खूब चल पड़ा है। मीडिया को गाली देना, लगता है नया सा है , पर फिर मैंने सोचा क्या सचमुच नया सा है?  इमर्जेंसी , मनसे एवं शिवसेना द्वारा मीडिया हाउस में तोड़फोड़ , उत्तरप्रदेश में तो प्रसारण ही रोक देना क्या ये सब गाली के प्रतीक नहीं है या उससे भी ज्यादा , एक कदम आगे।  कौन केहता है भारत पिछड़ गया है।  मीडिया भी क्या करे, हमारे हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट को तो केस निबटाने  कि फुर्सत नहीं तो मीडिया खुद ही निबटाता है।  सही भी है २० २५ साल कौन प्रतीक्षा करेगा , कइयो का तो रिटायरमेंट आ जाएगा .

सच तो ये है कि मीडिया भी बेशरम  या बेरहम हो गया है , खबरो के नाम पर विज्ञापन चला रहे  है और लगता है सारी खबरे चार महानगरो में सिमट के रह गई है। बताया गया था ८०% भारत गाँव  में बसता है मगर समाचारो में तो १% भी नहीं है , क्या ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा उपयुक्त है जीवन गुजरने के लिए ? कुछ भी अच्छा -बुरा नहीं  होता , या अब वहाँ कोई  नहीं रहता? क्षेत्रीय अखबार तो जैसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री एवं रुलिग पार्टी का   प्रशस्ति गान करने बैठे है , जो बुराइया एक नागरिक देखता है वो मीडिया क्यों नहीं देखता क्या ये भी हमारे कानून कि तरह अँधा हो गया है।

कुछ नेता आए है , केहते है डेवलपमेंट करेंगे, पर किसका ? देश को किसी कॉर्पोरेट कंपनी कि तरह चलने का वादा बड़ा लुभा रहा है , समझ नहीं आता कब कोई   हमारे सामाजिक विकास की बात करेगा . बोलते है हमारा देश एक युवा देश है , पर  जो दीखता है उससे लगता है कि भटके हुए युवाओ का देश है। आज  जहाँ सारी  जानकारी और  इतिहास हमारे हाथो में है और कुछ मिनिटो में सारी जानकारी हासिल कि जा सकती है ,वहाँ हम इडियट बॉक्स देख रहे है जो बस भरमा रहा है।  किसी होटल में पसंदीदा खाने कि तरह खबर परोसी जा रही है , जो आपकी मानसिकता को तुष्ट करे ऐसी खबर देखो।  कमाल है खबर में भी एकरसता न रही , खबर कैसे अलग हो सकती है ?

६० सालो में तो दुनिया बदल जाती है पर हमारी सोच क्यों नहीं बदली ? फूट डालो शासन करो २६० साल पुराना हो गया पर अब भी क्या काम करता है हम भारतीयो पर।  जाती धर्म के नाम पर किसी को भी मारने और मरने पर उतारू हम भारतीय गर्व कैसे कर लेते है ये शोध का विषय  होना चाहिए।

समाचार भी अभिव्यक्ति का साधन बन चूका है पर सिर्फ कुछ नेताओ  पूंजीपतियो को ही ये   अधिकार प्राप्त है और जो  लोग सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति करना चाहते है उन्हें रोकने का प्रयास कितनी बार किया जा रहा है , धन्य है भारत सरकार।   विशुद्ध खबर न जाने कहाँ खो गई , सोच का निर्माण करना भी एक कला है , तो क्या न्यूज़ रिपोर्टर भी अभिनेता हो गए  है. नेता और अभिनेता का ये संगम कमाल है , नेता करवाता है और अभिनेता अभिनीत करता है , वाह्ह !! .
जब मेरे आस पास के लोगो से बात करता हु तो उनकी भाषा और विचार  शब्दशः वही होते है जैसे कि हमारा समाचार अभिनेता बोलता है, लगता है मेरे देश के लोगो के पास रुक कर सोचने का भी समय नहीं है . युवा अपनी भागदौड़ में सोचने का काम भी आउटसोर्स कर चूका है .

केजरीवाल ने जब मीडिया को आइना दिखाया तो अपनी ही शक्ल देख के घबरा और बौरा गया और किसी छोटे से बच्चे कि तरह बदले कि आग में जलने लगा।   सोच कर भी विचित्र लगता है कि मीडिया , हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बदले जैसी अपरिपक्व हरकत भी कर सकता है।   बदला लेने कि ये कार्यवाही ही केजरीवाल के दावो को बल दे रही है , पर ये बात सोचने से ही समझ आती है।   आउटसोर्स कि गई सोच में ये ख़याल कैसे आएगा , वो ये कभी नहीं सोचेगी कि जिन राजनीतिक पार्टियो का बीजेपी विरोध कर रही थी उन्ही के गुंडामण्डित छवि के लोगो को गले लगा कर खुद को पहले वाली सरकार जैसा बना रही है।   सुना था जहर ही जहर को काटता है तो क्या ये काला पैसा जो चुनाव में लगा है ये ही काले पैसे को भारत वापस लाएगा . आरोप नहीं लगा रहा हु , अँधेरा  भी काला ही होता है और जहां कुछ न दिखे वो अँधेरा ही तो है . मीडिया और नेताओ के सामूहिक कृत्य से ये चुनाव अँधेरे में ही लड़ा जायेगा , बड़े दुःख  कि बात है।

हमें सैकड़ो सालो से दुसरो कि सोच जीने कि आदत है , पहले मुगलो कि , फिर अंग्रेजो कि और अब मीडिया कि।   खुद कि सोच बनाने कि छटपटाहट से मै तो जीत गया पर हमारा युवा देश जो इडियट बॉक्स के सामने बैठ कर अपने आउटसोर्स हुए काम का अवलोकन कर रहा है , उसका वोट तो देश के लिए एक आतंकी हमले सा प्रतीत होता है।  

ध्यान से देखो , खुली आँखों में के इस अँधेरे को . ६० सालो में क्या हुआ और किस चहरे के पीछे कौन है .

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