चुनाव आते -आते लग रहा है वादों का स्तर तो बढ़ रहा है पर राजनीती और व्यक्तियो का स्तर दिन ब दिन गिरता ही जा रहा है। छींटाकशी का दौर है , कोई किसी को चोर केहता है तो कोई किसी को पाकिस्तानी एजेंट। एके -४९ और नमो-५६ के बीच आम नागरिक बड़े भ्रम में है , पर ये भ्रम नया कहाँ है मै तो जब से थोडा समझने लगा तब से देख रहा हूँ . वोटर कि मनोस्थिति को नमो-स्थिति में लाने के ये प्रयास सराहनीय तो नहीं है , क्युकी विचारधाराओ का स्वछंद विचरण ही असल लोकतंत्र का परिचायक है। मतदाता किसी एक विचारधारा को अपनाए और अगले पांच साल फिर कही भीड़ में गुम हो जाए. ये भी कमाल ही है न कि एक भारतीय नागरिक चुनाव आते ही मतदाता हो जाता है वर्ना उसकी एक नागरिक के रूप में पहचान सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही तो है . जब कोई कार्यकर्ता जिसे कई बार कई कारणो से असामाजिक तत्व पाया , हमारे घर के दरवाजे पर वोट मांगने आता है अपने पवित्र नेताजी के लिए तो समझ नहीं आता किस भावना से वोट दें। डर तो लगता ही है . पर विकल्प ही क्या है।
वोटर और कार्यकर्ता में मुझे थोडा संशय है। पुश्तैनी वोटर सुनकर चकित हो जाता हूँ , मुझे तो लगता था कि सिर्फ कार्यकर्ता वफादार होता है , राष्ट्र विरोधी गतिविधियो के बाद भी अपनी पार्टी से प्यार करता है (देश से नहीं ) . मगर जब अपने मित्रो से वोट देने के बारे में विचार जाने तो कुछ पीढ़ियों से पार्टी भक्ति करते परिवारो से निकले , समझ नहीं आता लोग ऐसा क्यों केहते है कि शिक्षा से समझ आती है। ऐसे वोटरो का वोट कोई लहर नहीं देखता बस परिवार देखता है , देश से इन्हे क्या। शक तो होता है कोई नई ईमानदार पार्टी पिछले ६६ सालो में पनप क्यों नहीं पाई , पनपने ही नहीं दिया गया या हमारे देश से ईमानदारी अंग्रेजो के साथ चली गई थी , सोचने वाली बात तो लगती है।
एके ४९ कि बात करे तो मुझे हिम्मत दिखती है , कद्दावर शब्द को चुनौती दे डाली है। सवाल पूछ पूछ कर नाक में दम कर रक्खा है , पता नहीं कहाँ से दस्तावेज भी ले आता है हमारी सीबीआई को तो कभी न मिले थे ये , न ही धुरविरोधी कांग्रेस या बीजेपी को। शक तो तब होता है जब कोई जवाब देने भी नहीं आता , सवाल जवाब तो लोकतंत्र का बहुत ही जरूरी अंग होना चाहिए। बेचारे वफादार कार्यकर्ताओ को छोड़ रखा है जो बस झाकते है। कभी तो केहते है ईमानदार व्यवस्था कभी हो ही नहीं सकती और कभी दूसरी पार्टी ज्यादा बुरी है हम कम बुरे है बताने में लगे है। कभी तीखा सवाल आजाए तो केहते है उनसे सवाल क्यों नहीं पूछते , अरे भाई उनसे भी पूछ लेंगे पहले जवाब तो दो , पर नहीं। कई सवाल अँधेरे में है और लग रहा है चुनाव तक रहेंगे , और हमारा अंधभक्त वोटर ठप्पा लगा आएगा , और जो अंधभक्त नहीं है वो इस आस में कि अगले ५ साल में शायद जवाब मिले कम बुरे को चुनेगा (कम बुरे से मतलब ज्यादा मौका नहीं मिला लूटने का ) .
सवाल पूछने वाले भी सावधान रहे , कही स्याही और अंडे न पड़ जाए. काले झंडे पहली बार बाहर निकले है , पहले इस तरह का विरोध तो नहीं हुआ था , दोनों पार्टिया खुश थी शांति से एकदूसरे ही झूठी बुराई कर के काम चल रहा था , बड़ा भाईचारा था। हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर वोटर बाटना भी क्या कला थी / है। सेक्युलर वोटर बड़ा खतरनाक है (देश हित में नहीं ), उसे जाती में बांटने से वो ये भी नहीं देख पाता कि जिस हिंदूवादी पार्टी का वो भक्त है उसी के लोग पवित्र हिन्दू मंदिर के बाहर अंडे और गालिया फेंक रहे है। ये ही तो अंधभक्ति है। वो ये भी नहीं देखता कि मुसलमान समुदाय का ६० साल से पीछे होना किसकी देन है।
मेरे जैसा भी एक वोटर है जो बस काश में जी रहा है। काश मुझे सवालो के जवाब मिलते , मेरा गाव अब भी क्यों पीछे है ? नालिया , स्ट्रीट लाइट क्या होती है वहाँ जा कर कोई परिभाषित करे . हवा से चल रही है क्या सब पार्टियाँ ? पैसे का हिसाब मांगना क्या गलत है जब नेता हमें मालिक बोलते है? मेरा टैक्स का पैसा कहाँ लग रहा है ? देश में महंगाई के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाले नेताओ को अरबो रूपये अपने मार्केटिंग में खर्च करने में क्या कोई शर्म आती है ? नेता को सबसे ज्यादा डर जनता से क्यों लगता है, सामना क्यों नहीं करते ? और फिर पांच साल अंतर्ध्यान रहने के बाद किस मुह से वोट माँगने आजाते हो ?
बड़े दिल वाली है मेरे देश कि जनता , खुद देश लुटवाने हो तैयार है बिना किसी तैयारी के अपने जीवन के पांच साल किसी के हवाले कर रही है । अंग्रेज क्या बुरे थे ?
वोटर और कार्यकर्ता में मुझे थोडा संशय है। पुश्तैनी वोटर सुनकर चकित हो जाता हूँ , मुझे तो लगता था कि सिर्फ कार्यकर्ता वफादार होता है , राष्ट्र विरोधी गतिविधियो के बाद भी अपनी पार्टी से प्यार करता है (देश से नहीं ) . मगर जब अपने मित्रो से वोट देने के बारे में विचार जाने तो कुछ पीढ़ियों से पार्टी भक्ति करते परिवारो से निकले , समझ नहीं आता लोग ऐसा क्यों केहते है कि शिक्षा से समझ आती है। ऐसे वोटरो का वोट कोई लहर नहीं देखता बस परिवार देखता है , देश से इन्हे क्या। शक तो होता है कोई नई ईमानदार पार्टी पिछले ६६ सालो में पनप क्यों नहीं पाई , पनपने ही नहीं दिया गया या हमारे देश से ईमानदारी अंग्रेजो के साथ चली गई थी , सोचने वाली बात तो लगती है।
एके ४९ कि बात करे तो मुझे हिम्मत दिखती है , कद्दावर शब्द को चुनौती दे डाली है। सवाल पूछ पूछ कर नाक में दम कर रक्खा है , पता नहीं कहाँ से दस्तावेज भी ले आता है हमारी सीबीआई को तो कभी न मिले थे ये , न ही धुरविरोधी कांग्रेस या बीजेपी को। शक तो तब होता है जब कोई जवाब देने भी नहीं आता , सवाल जवाब तो लोकतंत्र का बहुत ही जरूरी अंग होना चाहिए। बेचारे वफादार कार्यकर्ताओ को छोड़ रखा है जो बस झाकते है। कभी तो केहते है ईमानदार व्यवस्था कभी हो ही नहीं सकती और कभी दूसरी पार्टी ज्यादा बुरी है हम कम बुरे है बताने में लगे है। कभी तीखा सवाल आजाए तो केहते है उनसे सवाल क्यों नहीं पूछते , अरे भाई उनसे भी पूछ लेंगे पहले जवाब तो दो , पर नहीं। कई सवाल अँधेरे में है और लग रहा है चुनाव तक रहेंगे , और हमारा अंधभक्त वोटर ठप्पा लगा आएगा , और जो अंधभक्त नहीं है वो इस आस में कि अगले ५ साल में शायद जवाब मिले कम बुरे को चुनेगा (कम बुरे से मतलब ज्यादा मौका नहीं मिला लूटने का ) .
सवाल पूछने वाले भी सावधान रहे , कही स्याही और अंडे न पड़ जाए. काले झंडे पहली बार बाहर निकले है , पहले इस तरह का विरोध तो नहीं हुआ था , दोनों पार्टिया खुश थी शांति से एकदूसरे ही झूठी बुराई कर के काम चल रहा था , बड़ा भाईचारा था। हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर वोटर बाटना भी क्या कला थी / है। सेक्युलर वोटर बड़ा खतरनाक है (देश हित में नहीं ), उसे जाती में बांटने से वो ये भी नहीं देख पाता कि जिस हिंदूवादी पार्टी का वो भक्त है उसी के लोग पवित्र हिन्दू मंदिर के बाहर अंडे और गालिया फेंक रहे है। ये ही तो अंधभक्ति है। वो ये भी नहीं देखता कि मुसलमान समुदाय का ६० साल से पीछे होना किसकी देन है।
मेरे जैसा भी एक वोटर है जो बस काश में जी रहा है। काश मुझे सवालो के जवाब मिलते , मेरा गाव अब भी क्यों पीछे है ? नालिया , स्ट्रीट लाइट क्या होती है वहाँ जा कर कोई परिभाषित करे . हवा से चल रही है क्या सब पार्टियाँ ? पैसे का हिसाब मांगना क्या गलत है जब नेता हमें मालिक बोलते है? मेरा टैक्स का पैसा कहाँ लग रहा है ? देश में महंगाई के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाले नेताओ को अरबो रूपये अपने मार्केटिंग में खर्च करने में क्या कोई शर्म आती है ? नेता को सबसे ज्यादा डर जनता से क्यों लगता है, सामना क्यों नहीं करते ? और फिर पांच साल अंतर्ध्यान रहने के बाद किस मुह से वोट माँगने आजाते हो ?
बड़े दिल वाली है मेरे देश कि जनता , खुद देश लुटवाने हो तैयार है बिना किसी तैयारी के अपने जीवन के पांच साल किसी के हवाले कर रही है । अंग्रेज क्या बुरे थे ?
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