लोकतंत्र में मतदाता क्या क्या काम होना चाहिए इस पर मतदाता ने कभी सोचा न नेताओ ने। क्या एक मतदाता को किसी चहरे को चुनना चाहिए या किसी विचारधारा को या उसे सिर्फ अपने क्षेत्रीय नेता को चुनना चाहिए ? प्रश्नो का उत्तर कौन देगा ? क्या कभी कोई टीवी पे बहस चाहेगा ? इलेक्शन कमीशन को क्या जागरूकता फैलानी चाहिए ? सिर्फ वोट देने का पूछने भर से हो जाएगा क्या?
राजनीती में अपराधियो का आना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है , सोचने का विषय तो ये है की ये वहां पहुंचे कैसे। क्या राजनीतिक पार्टियो को इनके हार जाने का तनिक भी डर नहीं है , ऐसा क्यों है। मुझे लगता है ये सब वोटर की करामात है। एक नोटा का अपाहिज विकल्प काफी नहीं है और ये विकल्प आया भी तो आजादी के ६७ साल बाद , हैरानी की बात है।
राजनीती एक श्रंखला है जिसमे नीचे से चुना हुआ ही देर सवेर ऊपर जाता है। अगर सिर्फ मतदाता अपने क्षेत्र से एक साफ़ और ईमानदार को चुने तो वो ही आगे चल कर एक साफसुथरी सरकार दे सकता है। अपराधियो के चुन कर आने की संभावना जिस दिन समाप्त हो जाएगी उस दिन हमारा समाज , देश और राजनीती समृद्ध हो जाएगी।
किसी व्यक्ति विशेष की आरती उतारना हमारे लोकतंत्र की संस्कृति नहीं है। मतदाता सवाल पूछे , अपने सवाल , अपने क्षेत्र के सवाल और जिसका जैसा जवाब वैसा वोट। ये मतदाता का काम नहीं है की केंद्र में कौनसी सरकार आएगी उसका ये काम है की कैसी आएगी। जब सारे अच्छे लोग बहुमत में केंद्र में जाएंगे तो सरकार खुद ब खुद अच्छी ही बनेगी। एक मतदाता से अच्छा उसके क्षेत्र के नेता को कोई नहीं जनता इसी लिए शुद्दिकरण का एकमात्र ये ही उपाय लगता है की अच्छे तो चुने और सच्चे को चुनें।
चुनाव आते ही धीरे-धीरे मुख्य मुद्दो से बड़ी आसानी से ध्यान भटका दिया जाता है। भ्रष्टाचार , अपराधीकरण, गरीबी, किसानो की आत्महत्या की बात छोड़ धर्म और संप्रदाय की बात कर बड़ी आसानी से बरगला दिया जाता है। हम कब सीखेंगे अपनी गलतियों से? अब तो ईमानदार पर भी शक होता है की ये भी आगे चलकर कहीं बेईमान हो जाएगा , पर सोचना ये है की ये आगे का रास्ता इतना बेईमान करने वाला बनाया किसने की हमें ही किसी पर भरोसा नहीं होता, क्या हम खुद जिम्मेदार नहीं हैं ?
भारत भाग्य विधाता को भाग्य के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए , कही देर न हो जाए।
धन्यवाद!!
राजनीती में अपराधियो का आना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है , सोचने का विषय तो ये है की ये वहां पहुंचे कैसे। क्या राजनीतिक पार्टियो को इनके हार जाने का तनिक भी डर नहीं है , ऐसा क्यों है। मुझे लगता है ये सब वोटर की करामात है। एक नोटा का अपाहिज विकल्प काफी नहीं है और ये विकल्प आया भी तो आजादी के ६७ साल बाद , हैरानी की बात है।
राजनीती एक श्रंखला है जिसमे नीचे से चुना हुआ ही देर सवेर ऊपर जाता है। अगर सिर्फ मतदाता अपने क्षेत्र से एक साफ़ और ईमानदार को चुने तो वो ही आगे चल कर एक साफसुथरी सरकार दे सकता है। अपराधियो के चुन कर आने की संभावना जिस दिन समाप्त हो जाएगी उस दिन हमारा समाज , देश और राजनीती समृद्ध हो जाएगी।
किसी व्यक्ति विशेष की आरती उतारना हमारे लोकतंत्र की संस्कृति नहीं है। मतदाता सवाल पूछे , अपने सवाल , अपने क्षेत्र के सवाल और जिसका जैसा जवाब वैसा वोट। ये मतदाता का काम नहीं है की केंद्र में कौनसी सरकार आएगी उसका ये काम है की कैसी आएगी। जब सारे अच्छे लोग बहुमत में केंद्र में जाएंगे तो सरकार खुद ब खुद अच्छी ही बनेगी। एक मतदाता से अच्छा उसके क्षेत्र के नेता को कोई नहीं जनता इसी लिए शुद्दिकरण का एकमात्र ये ही उपाय लगता है की अच्छे तो चुने और सच्चे को चुनें।
चुनाव आते ही धीरे-धीरे मुख्य मुद्दो से बड़ी आसानी से ध्यान भटका दिया जाता है। भ्रष्टाचार , अपराधीकरण, गरीबी, किसानो की आत्महत्या की बात छोड़ धर्म और संप्रदाय की बात कर बड़ी आसानी से बरगला दिया जाता है। हम कब सीखेंगे अपनी गलतियों से? अब तो ईमानदार पर भी शक होता है की ये भी आगे चलकर कहीं बेईमान हो जाएगा , पर सोचना ये है की ये आगे का रास्ता इतना बेईमान करने वाला बनाया किसने की हमें ही किसी पर भरोसा नहीं होता, क्या हम खुद जिम्मेदार नहीं हैं ?
भारत भाग्य विधाता को भाग्य के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए , कही देर न हो जाए।
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