बुधवार, 24 सितंबर 2014

मेरा धर्म मेरा देश !

मै बड़ा धार्मिक व्यक्ति हूँ और अच्छे लोगो की संगति एवं आला दर्ज़े (महंगी नहीं )की स्कूली शिक्षा से समझा हूँ कि 'मज़हब नहीं सीखता आपस में बैर रखना ' . हिन्दू धर्म का होने पर गर्व की अनुभूति भी होती है क्युकी हमारा धर्म ही हमारे देश को त्यौहारो का देश बनता है , सौहाद्र और सहिष्णुता का संचार करता है। धर्म की ज़रुरत मानव को आपस में जुड़े रहने के लिए पड़ी होगी।  इसमें जीवन दर्शन और जीवन यापन के आदर्श भी हैं जो हमें भ्रमित होने से बचाने के लिए हैं। मेरे धर्म ने कभी नहीं कहा की वो सर्वश्रेष्ठ है पर इसका पूर्णरूपेण पालन  करने वाले श्रेष्ठ चरित्र के ज़रूर बन जाते है।  श्रेष्ठ चरित्र महिलाओ , माता पिता, अन्य धर्मों और सभी प्राणियों का सम्मान करने में है क्युकी ये धर्म ही हमें नरभक्षी और वहशी तत्वों से अलग करता है , अगर आप इस प्रकार के तत्वों को खुद में या किसी और में देखते है तो समझिए की ये धर्महीनता या धर्म  को गलत तरीके से परिभाषित करने का परिणाम है।

इसे समझना आकाश में बादलों में आकृतियों की कल्पना करने जैसा है इसी लिए शायद इसकी व्याख्याओं में भयंकर त्रुटियाँ है और इसके व्याख्याकार हमें अपने व्यक्तिगत हितों के अनुसार भरमा भी देते हैं। चाणक्य ने जब ये कहा की राज धर्म किसी भी धर्म से बड़ा है तो सच भी लगा क्युकी अपनी मातृभूमि के सम्मान की रक्षा हम अपने दैनिक जीवन में कर के अच्छे चरित्र को प्राप्त कर लेते हैं और किसी भी धर्म का उद्देश्य ये ही तो है। हमारे धर्म की व्याख्या में त्रुटियाँ न होती तो क्या हम खून के प्यासे होते, क्या हम सभी का सम्मान न करते , बलात्कार , भ्रष्टाचार और खूनियो को गले न लगाते।  ये सब तो मेरा धर्म नहीं सीखता।

हाल ही के घटनाक्रमों को ध्यान में रखें तो समस्याओं की मूल जड़ को समझा जा सकता है।  हमारी आस्था पर सदियों से करारे प्रहार होते आए हैं क्युकी सभी धार्मिक किताबों की अभिगम्यता होने के बावजूद हमें एक स्वयंभू संत , गुरु , बाबा या योगी की ज़रुरत होती है जिसे हम आँखे बंद करके अपनी सारी समझ और अक्ल समर्पित कर देते हैं। भेड़ की तरह भीड़ के पीछे सर झुकाए निकल पड़ते हैं। ये भूल जाते हैं  की संत , गुरु , बाबा या योगी भीड़ में नहीं पाए जाते , ये लोग महंगी गाड़ियों और आलिशान बंगलों में नहीं होते है , ये नेता भी नहीं होते हैं न ही कभी किसी के लिए नफ़रत भरे बोल बोलते हैं , भगवानों की लड़ाई भी नहीं लड़ सकते ।  ये वो फ़कीर सन्यासी होते है जो अपनी व्यक्तिगत जिंदगी का त्याग कर लोगो के लिए और ईश्वर के लिए जीते हैं। लोगों के लिए जीवन जीने की प्रेरणा होते है जो अपनी जीवन शैली से इसके अनुसरण की प्रेरणा देते हैं। क्या आपके गुरु अनुसरणीय हैं ? ज़रा सोचिये।

ये एक अनकहा सत्य है की धर्म को हम अपनाते है और चूँकि हमें  कई धर्मों के इकोसिस्टम में रहने का सौभाग्य प्राप्त है , हम सभी धर्मों से कुछ सीख सकते हैं जिनकी व्याख्या अलग अलग परिस्थितियों में की गई है। हम ये भी देख सकते हैं की हमारे धर्म के योगी , गुरु  संतों की जीवनशैली और व्यवहार गीता/ कुरान / बाइबिल में लिखे अनुसार है भी या नहीं। धर्म ने प्रेम की सीमा को संकुचित नहीं किया पर इसके ठेकेदारों ने जरूर करदिया। धर्म ने हिंसा का प्रतिकार किया पर हज़ारों लाखो मासूम धार्मिक हिंसा का शिकार हो जाते हैं। क्या किसी ने किसी धर्म के ठेकेदार को इस हिंसा का शिकार होते देखा है ? मैंने तो नहीं देखा।  वो कौन थे जो अब नहीं रहे ? क्या उनके परिवारों का भरण पोषण धर्म के ये अरबपति ठेकेदार कर रहे हैं ? उन परिवारों की तात्कालिक परिस्थिति क्या है ? ज़रा सोचिये और देखिये।

राजधर्म की उपेक्षा से हमारे देश ही अंदर से खोखला करने वाले नफरत के ज़हर का संचार हो रहा है। धर्म की अमानवीय व्यख्या  ही हमें वहशी और अमानव  बना रही है।  धर्म और आध्यात्म की जटिल गहराइयों को समझने की जगह हम राजनीति से प्रेरित नफरत को हवा देने में लगे है।  इसके परिणाम भयंकर है क्युकी मैंने इस पीढ़ी के माता पिता को अपने छोटे बच्चों को नफ़रत की शिक्षा देते देखा है क्युकी वे ही प्रतिबिम्ब और प्रथम शिक्षक हैं उन बालमनों के  लिए । हमारी शिक्षा से हम इंजीनियर , डॉक्टर और मैनेजर तो बन रहे है पर इसका  इंसान बनाने में योगदान नाममात्र भी नहीं लगता है क्युकी मैंने पढ़े लिखों को सोशल मीडिया पर नफ़रत फैलाते देखा है।  हर नफ़रत भरी बात को बिना सत्यता जाने साझा करने को आतुर ये मेरे ६५% पढ़े लिखे युवा भाई बहन किस मजबूत देश का निर्माण करने वाले हैं ये तो भगवान ही जाने। आतंकवाद को हटाने के लिए खुद आतंकवादी बनाना ज़रूरी नहीं है और किसी अपराधी को उसके धर्म के आधार पर आंकना भी नहीं । याद रखिये रावण भी एक ब्राह्मण था पर उसकी प्रवृत्ति आसुरी थी।

धर्म पुराना हो चूका है , कुरीतियाँ अब भी है।  जीवन दर्शन भी बदल गया है।  जब इंसान सुर से असुर हो गया तो धर्म पुराना क्यों ? सभी धर्मों की प्रेम रूपी व्याख्या ही समाधान है वरना नास्तिकों से ज्यादा भ्रमित और ज़हरीला आस्तिक राजधर्म और मानवता  के लिए खतरा है।

राजधर्म ही सबसे बड़ा धर्म है।  कृपया अपने धर्म की पवित्र पुस्तकों को खुद पढ़े वहाँ नफ़रत नहीं प्रेम ही मिलेगा।    संत और गुरु की परिभाषा भी पढ़े या  गूगल कर लें। किसी कपटी चरित्रहीन ढोंगी का सहारा जीवन दर्शन और चरित्र निर्माण के लिए लेना देशद्रोह से कम  नहीं है इससे आगे चल कर आपकी आस्था को ही ठेस पहुंचेगी, क्युकी अंतरात्मा से झूठ न बोल पाओगे और बौखला कर अधर्मी हो जाओगे  । संत , योगी और गुरु इतनी आसानी से नहीं पाए जाते न ही दूकान लगाए बैठे होते है, जीवन को सही राह पे लाने और धर्म की मानवीय व्याख्या करने वाले ईश्वर और अल्लाह के बंदे को ढूंढना भी तपस्या ही है। ईश्वर को समझना है तो मानव बने और मानवता की राह पर चलें।

धन्यवाद !



गुरुवार, 31 जुलाई 2014

महंगाई देवी !

ये महंगाई असल में है क्या ? एक चुनावी मुद्दा या एक हक़ीक़त ? ये किन लोगों को प्रभावित करती है और उनका प्रतिशत क्या है?  एम बी ए करते वक़्त ये तो सिखाया गया की एक बिज़नेस को चलाने में क्या करना होता है और ग्राहक का मनोविज्ञान भी सीखा पर किसी ने ये न बताया था की आखिरकार ग्राहक ही है जो वस्तुओ के भाव में उथलपुथल से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। महंगाई उद्वेलित कर देती है जब वो खुद की जेब से चार बचाए पैसे छीन ले।  महंगाई सेक्युलर प्रवृत्ति की होती है , जात -पात से ऊपर उठ कर सब के साथ सामान व्यवहार करती है जो भी उपभोक्ता है। बड़ी हठी है ये , हर बार मतदान करने के बाद बेचारा उपभोक्ता सोचता है की अब ये कम हो ही जाएगी पर ये कभी न हो पाया न हमारे तात्कालिक राजनीतिक तंत्र को देख कर लगता है की कभी हो भी न  पाएगी।  महंगाई सर्वशक्तिमान है।

आजकल ये महंगाई एक अवसर भी हो चली है जिसकी दुहाई दे कर हमारे शहर में रिक्शा से लेकर अनाज तक सब महंगा हो चला है।  टमाटर की कमी है तो आलू भी महंगे हो चले हैं चाहे गोदामों में पड़ा पड़ा सड़  जाए पर किसी गरीब की थाली में पंहुचा तो महंगाई देवी नाराज़ हो जाएगी ।  एक लहर थी जो एतिहासिक  सरकार बना गई जहाँ  हर जन साधारण ने अपना योगदान दिया था , आजकल महंगाई की लहर है जिसमे समाज का हर जमाखोर - व्यापारी  वर्ग योगदान दे रहा है।  चुनाव में तो कोई ऑपोसिशन भी होता है पर इस महंगाई का कोई व्यापारी विरोध करे भी तो कैसे , यहाँ भी क्लीन स्वीप ही हो रहा है।जमाखोर महंगाई देवी के सच्चे अनुयायी हैं जो इसका शौर्य बनाए रखते है , जिनकी कृपा से सरकार के कुछ प्रतिशत बढ़ने के बाद ये अपनी ओर से कुछ जोड़ देते है और सीना ठोंक कर अधिकतम मुद्रित मूल्य से ज्यादा में दैनिक जीवन यापन करने की वस्तुए बेच रहे हैं।  बेचारा मीडिया कैसे इसे दिखाए आखिरकार ये टी आर पी का खेला  है।  क़ानून भी असहाय है , वैसे भी कहा जाता है की हमारे देश में कानून सिर्फ कुछ धनाढ्य और सत्ताधारियों के लिए ही है और महंगाई तो फिर भी सर्वोपरि है उसे कैसे कोई आंच आ जाए।

नेताओं के लिए महंगाई एक विरासत हो चुकी है जिसे हर सत्ताधारी आगे ले जाता है , सेंसेक्स का पारा चढ़ने को डेवलपमेंट का पैमाना मानाने वाले ये भूल गए की ये पैमाना तभी पॉज़िटिव में होता है जब महंगाई देवी अपने चरम पर हो। पता नहीं सब जमाखोर उद्यमियों पर कृपा बरसाने वाली महंगाई देवी सबसे बड़े उत्पादकों (किसान )से क्यों रूठी रहती है , बेचारा किसान आलू, टमाटर , अंनाज सब उत्पादित करता है और जब कड़ी मेहनत कर के फसल बेचने जाता है तो ८० रूपये प्रति  किलो वाले टमाटर का २ प्रति रूपये किलो भी दाम नहीं पाता और अपनी फसल आवारा मवेशियों को खिला के आ जाता है। ऐसा तो नहीं कि एक किसान अभी एक वोटर की श्रेणी से निकला नहीं है और उसे अभी सिर्फ अपनी कम राजनितिक समझ का उपयोग करके वोट देने के लिए आरक्षित रखा है?  उस बेचारे का नंबर शायद ही आएगा। किसान तो बस ये समझने की कोशिश में है की कैसे उसका प्यारा टमाटर उससे बिछड़ने के बाद वी आई पी हो जाता है ? कैसे उसके भाव बढ़ जाते हैं और इतराकर आसमान पे बैठ जाता है और उसे ही आँख दिखा कर चिढ़ाता है ? ये गणित समझाने की क्या कोई आवश्यकता है भी बेचारे किसान को ?

 राजनीतिज्ञों का कमाल भी तो देखिये , अपनी कुशलता का उपयोग कर उन्होंने दल समर्थकों की फौज खड़ी कर ली है जिन्हे देश से ऊपर दल और धर्म को रखने की सीख दी गई है और जो बड़ी बेशर्मी से पहले तो अपने दल का चुनावी प्रचार करते है और महंगाई देवी को मुद्दा बना कर वोटेभिक्षा मांगते हैं।  ये दल समर्थक कोई और नहीं इसी देश के वे नागरिक हैं जो इन्ही महंगाई देवी के सताए हैं पर जात -पात , धर्म के नाम की नकारात्मकता का मरहम प्राप्त ये लोग अपने अंधत्व का सम्पूर्ण प्रयोग कर महंगाई देवी की आरती करते दिख जाते हैं। इनकी शायद कोई आशा नहीं है , आशाहीन ये भक्त पुरानी सरकारों के पापों  के ढोल नगाड़े ले कर निकल पड़ते हैं।  महंगाई के प्रकोप से ये भी न बचपाए हैं पर क्या करें , अंध भक्ति के अँधेरे से जब धरातल के सत्य का प्रकाश आँखों पर पड़ता है तो कुछ समय तक कुछ दिखाई नहीं देता।

समय आएगा जब ये चौंधियाई आँखे कुछ देखेंगी पर मुझे डर है कहीं तब तक राजनितिक दल कोई नया नकारात्मकता का मरहम न इज़ाद कर ले। वैसे नया मरहम आ ही गया है , नफरत का। हमारे नेता लगातार  बयानबाजी कर नफरत के बीज बोए जा रहे है और हम अंधभक्त उसे सींचे जा रहे है और इस सिंचाई में हम कुछ देर के लिए ये भूल जाते हैं की ये महंगाई क्या बला है।   महंगाई देवी की संताने हमारे राजनितिक दल अपनी माँ की सेवा में तल्लीनता से जुटे हैं और चाहे सारे देश को रुग्ण होना पड़े ये अपनी माँ पर आंच न आने देंगे।

मेरे देश के लोगो से तो अच्छी ये महंगाई देवी है जो हमेशा निष्प्रभाव रहती है और सामान रूप से देश के नागरिकों के साथ व्यवहार करती है , कोई अछूता नहीं है इससे। ये कभी निष्क्रिय भी नहीं होती , जब हम जात -पात और धर्म के नाम पर इसे भूल कर अपनी मनुष्यता त्याग देते हैं तब भी हमारा परिवार महंगाई देवी की कृपा से अछूता नहीं रहता।  कुछ भी हो वक़्त ने हमें समझौते करना सीखा दिया है और सरकार ने इसके सिवा कोई रास्ता नहीं छोड़ा। अभी भक्ति जाप जारी है , और हम वो लोग हैं  जो २०० साल बाद कई पीढ़ियां निकलने के बाद समझे की हम गुलाम है और इस समझ के आते आते कई जानें गवां भी बैठे थे फिर जागे और एक हुए।

इस महंगाई देवी के पाश से निकलना आसान नहीं लगता क्युकी गांठे हमारे अपनों लगाईं हैं , जो जमाखोर व्यापारियों और हमारे चुने हुए भ्रष्ट व अपराधी नेताओं के रूप में हमारे बीच ही हैं।  पर उम्मीद है की एक दिन फिर हम एक होंगे और इस बिमारी से सदा के लिए छुटकारा  लेंगे।














गुरुवार, 24 जुलाई 2014

हम भारतीय !

हम भारतीय हैं।  परिभाषा के अनुसार तो सबसे संस्कारी , किसी भी धर्म , जाति  विशेष के लिए सदैव बाँहें फैलाए खड़े रहने वाले। वैसे भी वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत तो सैद्धांतिक तौर पर मानाने वाले हम भारतीयों की पहचान ही ये है की इसे किसी एक धर्म या जाति के रूप में न देख कर इनके एक समूह के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है और गज़ब का संतुलन रहा करता था सबके बीच। किसी ने कहा था कि भारत उत्सवों का देश है , हो भी क्यों न क्युकी इतने धर्मो एवं जातियों में से किसी न किसी का कोई त्यौहार हमेशा रहता ही है , तभी तो सौहाद्र की परिकल्पना की गई है।

हमारी आज़ादी को ६५ साल से ज्यादा हो चुके है और इस अंतराल में कई बार इस भारतीय परिभाषा को आहात करने की सफल कोशिश हुई है।  कहा जाता है फुट डालो शासन करो का सूत्र अँगरेज़ ले कर आए थे और गजब का उपयोग भी किया था।  क्युकी हम भारतीय गलतियों से सीखने का हर मौका गवाना अच्छे से जानते हैं इसलिए २०० साल की गुलामी के बाद भी एक नया वर्ग (नेता ,धर्म के ठेकेदार आदि ) इस सूत्र को उपयोग कर रहा है । हमें आज़ादी मिली थी क्युकी हम एक थे पर बाद में हमारे नेताओं  ने अंग्रेज़ो की अन्य विरासतों (रेल , कानून, अधोसंरचना  आदि ) के साथ साथ फुट डालने को भी आगे बढ़ाया और अब तक वे एक नफरत की चिंगारी सबके मन में जगाने में कामयाब भी रहे है।

इन ६७ सालों में हम क्या से क्या हो गए है , हमारा अपराधों , भ्रष्टाचार , अमानवता , स्त्री का अपमान को लेकर प्रतिरक्षात्मक रवैया बढ़ता ही जा रहा है। तभी तो हम एक अपराधी , भ्रष्टाचारी , बलात्कारी को अपना प्रतिनिधी बनाकर हम पर ही शासन करने के लिए चुन लेते है। नारी को शक्ति मान कर पूजा करने वाले हम भारतीयों का खून तब भी नहीं खौलता जब एक देवी का प्रतिनिधित्व करने वाली नारी की अस्मत पर हमारे पड़ोस में ही आंच आ जाती है और हम मूक एवं असहाय हो जाते हैं , और वहीं किसी नेता या अधर्म गुरु के बहकावे में आकर हम मासूमो का संहार करने से भी न चूकते हैं , हमेशा आडम्बर रुपी भड़काव के लिए तैयार .
कभी सीना ठोंक भ्रष्टाचार के खिलाफ न बोलेंगे और ये जानते हुए भी की ये पैसा कैसे और कहाँ तक जा रहा है हम उसे मिटाने की पहल करने के बजाए एक सरकारी नौकरी की इच्छा रखने लगते है ताकि शोषितों से हटकर शोषण करने वालों की सूचि में दर्ज हो जाएं।

नफरत और निराशा के ६७ साल के लगातार  डोज़ से अपराधो, अपमान , ठगी, धर्मान्धता के प्रति हमारी प्रतिरोधक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिसके फलस्वरूप आज कमज़ोर वर्ग (महिलाए ,बच्चे , गरीब ) इसकी आंच में झुलसना शुरू हो गया है और यदि हम भी कमज़ोरी की ओर इसी तरह अग्रसर रहे तो परिणाम भयानक होंगे। संगठन का न होना , धर्म की सही परिभाषा को न पहचानना एवं भारतियों की परिभाषा को न जानना ही कुछ मूल कारण हैं जो हमें कमजोर बनाए रखे है। इसी के उलट करजोर करने वाली शक्तियों न केवल मजबूत हुई है साथ ही साथ एक अहंकार भी ले चूका है जो की हमारी दुराचार के प्रति उपेक्षा का नतीजा है।

भारतीय होने पर गर्व भी अधिकतर वो ही करते हैं , जो देश पहले ही छोड़ चुके हैं और लौटने का न उद्देश्य है मंशा।  बस शोशल मीडिया पर देशभक्ति दिखादो। एक होने का समय बीता जा रहा है , कम  से कम  अपने बच्चो के मन में प्यार का बीज बोए नफ़रत का नहीं। नेताओं के साथ उनके अन्य पोस्टर बॉयज को पहचानना कहा ज्यादा मुश्किल है, साथियों को देख नेता का चरित्र पहचाना जा सकता है ।  खुद को ठगना कोई हमसे सीखे, बबूल का बीज बो कर हम आम की इच्छा नहीं रख सकते।
एकता में  शक्ति है , देर से सही जीत जाएंगे अगर साथ रहे अन्यथा हमेशा कथित एवं अकथित तौर पर गुलाम ही रहेंगे।  कृपया देश बचाएं!





शनिवार, 5 जुलाई 2014

नई सरकार का विश्लेषण !

चुनाव हो गए , नई सरकार भी बन गई।  अब समय आया कुछ करने का।  मनमाफिक सब होने के बाद लोग अपने काम पे लग गए और आशा की डोर नई सरकार के हाथों में सौप दी। मोदी जी का अपना अलग अंदाज़ भी है।  अच्छे दिन आ ही गए थे समझो , सब इंतजार कर रहे है।  पर ये क्या अभी ३० दिन हुए और विश्लेषण शुरू हो गया।  मीडिया अपने पुराने (दिल्ली वाले ) अंदाज़ में परिणामों को ढूंढने लगी और उसी दिल्ली सरकार  भांति नई सरकार समय की मांग करने लगी।

अचंभित करते वाली बात तो यह थी की वो ही बीजेपी जो दिल्ली सरकार से पहले दिन से परिणामो की मांग कर रही थी , आज उसी सरकार वाली दलीले दे रही थी।  पूत के पाँव पालने में देखने की पुरानी संस्कृति है हमारी , उसे कैसे भूल जाए , है न ? पर मै इसे ग़लत मानता हूँ , इस १ महीने में सिर्फ इस बात का विश्लेषण होना चाहिए कि  घोषणा पत्र में किये गए वादों के बाबद क्या कदम उठाए गए। कड़वी दवा तो हम भारतीय पिछले ६७ सालों से पी रहे है पर उसे और कड़वा करने का संकेत भी मिल गया।

हम सब को सिर्फ ये सोचना चाहिए की वो क्या मुद्दे थे जिनकी वजह से कांग्रेस को नकारा गया और कहीं का न छोड़ा। मेरे ख्याल से महंगाई, भ्रष्टाचार, परिवारवाद , अहंकार और अराजकता इनमे से कुछ हैं। अगर नई सरकार कड़वी दवा के साथ साथ कुछ कड़वे कदम उठा कर इन कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ही कुछ संकेत दे देती तो बहुत कुछ दिखाई देने लगता। साथ ही साथ ये भी पता चल जाता की भारत के आम आदमी में ऐसी क्या बिमारी है जो उसे अपने सामान्य जीवन की जद्दोजहत में लग गई , तो बड़ा अच्छा होता। मुझे नहीं लगता की देश में भ्रष्टाचार के द्वारा जनित धनाढ्यों को आलू या प्याज की कीमतों से कोई फर्क पड़ता होगा , ना ही मुझे लगता है की पेट्रोल या डीज़ल के दाम बढ़ने उनके जीवन में कोई बदलाव आएगा। देश के आगे बढ़ने से पहले महंगाई का आगे बढ़ने वाला क्या फार्मूला है , शायद पहले प्रति व्यक्ति आय बढ़ती तो ठीक रहता।

विश्लेषण होना बड़ी अच्छी बात है पर क्या पैमाना हो ये बहुत ज़रूरी बात है जिसे ध्यान में रखे बिन आगे बढ़ाना खतरनाक होगा।  हमारा पूरा तंत्र सड़ांध मार रहा है , मोटी चमड़ी वाले सरकारी कर्मचारी जनता को लुटे जा रहे है। जनहित  योजनाओ का पूरा पैसा उनके घरो और शादियों में लग रहा है।  पुलिस रिपोर्ट लिखने का फैसला फरियादी की जेब के आकार और आरोपी के ओहदे को ध्यान में रख कर करती है, जनता के रक्षक ही भक्षक है।  और जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने  पीछे का उद्देश्य किससे छुपा है।

अच्छे दिन जनता तक पहुंचेंगे या सिर्फ कागजो पर रहेंगे ये इन लोगो पर निर्भर करेगा.  योजनाओं  के पहले इच्छाशक्ति और इस तंत्र की सफाई की ओर ठोस  कदम ये सुनिश्चित करेगा की ये अच्छे दिन किसके आने वाले है , ग़रीब  के या हमेशा की तरह भ्रष्टो के।

विश्लेषण शुरू हो चूका है , कभी टेलीविजन पर तो कभी सामान खरीदते या उसके खर्च की तुलना करते हुए , कभी किसी सरकारी दफ़्तर के काम करने के तरीकों पर तो कभी हमारी अपनी पुलिस के व्यवहार पर।  कुल मिला कर नई सरकार के हमारे जीवन पर अच्छे या बुरे प्रभाव से अच्छा पैमाना तो कुछ है नहीं , बस शुरू चुके है लोग। नई सरकार को समय मांगने की कोई ज़रुरत भी नहीं है , लोग वैसे भी ५ साल दे चुके हैं।  पर जैसा की मोदी जी समझते हैं और उन्होंने कहा भी है की ये सरकार उम्मीदों का बोझ लेकर चल रही है , रास्ता कठिन है और शरीर (देश ) बीमार है , बस कड़वी दवा का असर रोग पर भी हो जाए तो बात ही क्या।  तब तो अच्छे दिन आ ही जाएंगे।

यहाँ "सरकार का बदलाव" नहीं, "बदलाव की सरकार" की आशा में बंधे है हम सब .





बुधवार, 14 मई 2014

ज़रा सम्हल के

अब २४ घंटे से भी कम समय बाकी है। चुनाव में अपने मत का दान करने के के बाद मै भी कई और भारतीयोँ की  तरह अपने रोज़ी रोटी वाले काम कि तरफ़ बढ गया था, क्युकी दुर्भाग्यवश  ये किसी राजनीतिक दल कि नहीं हमारी स्वयम की ज़िम्मेदारी है। लग रहा था अब जो भी होगा वो १६ तारीख को पता चल ही जाएगा।  पर ये क्या, यहाँ तो पहले ही सरकार बना दि ग़ई  है , मंत्रिमंडल का गठन जारी है।  लोग अब भी इडियट बॉक्स के सामने बैठे हैं और अपने आप को तुष्ट करने वाले आंकड़े देख रहे हैं। पार्टियो  ने अपने न्यूज़ चैनल रुपी विज्ञापन बोर्ड अभी तक नहीं हटाए हैं, पर इससे कोइ फ़ायदा तो है नहीं ।

मै सोच रहा था कि कुछ ज़िम्मेदार चैनल तो कम से कम ये दिखाएंगे कि इस चुनाव में कितने प्रकार के मतदाताओं ने वोट किया है और उनकी आशाए क्या थीं , पर निराशा ही हाथ लगी। सब लोग सीटो के मायाजाल में एक बार फ़िर उलझ चुके हैं।  जो पत्रकार चुनाव के समय अपना वक़्त मतदाताओ के बीच बिता रहे थे वो फ़िर नेताओ कि तरह ही चुनाव के बाद मतदाताओ को भुल गए और खुद ही अपनी पसंदीदा पार्टी को सीटें बांटने लगे है।हमारे मुद्दे कहाँ हैं ? क्या ये हमारी समझ और समय का मज़ाक नहीं  है ?

जिस गति से हमारे मीडिया ने सरकार परीणाम पुर्व ही बना दी है , लगता है चुनाव आयोग की घोषणा के पहले ही ये कोइ जनहीत कि योजना भी लागु कर हि देगे।  पर क्यों न हो , जिनसे पिछले कुछ सालों मे मोटी कमाई कि है उनके प्रति ये निष्ठा का भाव होना भी चाहिए। चरित्र अभी इतना भी पतित नहीं हुआ है। सांप निकलने के बाद लाठी पीटना तो हमारी रगों में है। जब सब कहते है कि ये चुनाव पार्टियों ने नहीं मीडिया ने लडा है तो क्या परिणाम निकलने का श्रेय किसी और को लेने देंगें , कभी नही , हमारी चुनावी संस्कृति बदल चुकी है।  अब कई हजार करोड़ रूपये खर्च कर नेता बताते है की वो  महंगाई और ग़रीबी दूर करेंगे , कैसे करेँगे ये बताने मे कुछ हजार कऱोड और लगेंगे।  पर कैसे करेंगे ये क्यों बताए जब सिर्फ गरीबी  महंगाई हटाने के नारों से ही  सत्ता मिल जाए।

हम भारतियों को बड़ा हर्ष होता यदि हमारे पत्रकार कुछ और समय हम मतदाताओ के साथ बिताते , हमसे पुछते कि हमने क्यों वोट दिया , हमारी क्या उम्मीदें हैं।  इससे कम से कम नई सरकार में ये संदेश  तो जाता की वो जहां है वहाँ क्यों भेजा गया है , अगर अगली बार वोट माँगने आएं तो क्या काम करवाने हैं।   पर कहाँ, मिडिया तो परिणाम बताने में लगा है।  कृपया याद  रक्खे इस बार ६०% युवाओ ने वोट किया है जो अच्छे परिणाम चाहते है और सरकार और मीडिया के चरित्र को  बारीकी से परखने  वाले  है।  हम घोषणापत्र ले कर बैठे  है इस बार , जरा रुकिए और आगे थोड़ा सम्हाल कर चलिए आगे डगर मुश्किल हो सकती है . भ्रष्ट लोगो कि उम्मीद अब बहके  हुए यूवा हैँ जिनकी संख्या भी  दिन ब दिन कम हो  जा रही है। लोग जुड़ने लगे है , बोलने लगे हैं।  फिर कहता हूँ , ज़रा सम्हल के। 





शनिवार, 3 मई 2014

मतदान दिवस का अनुभव

१६ मई का अब इंतज़ार नही होता !!  मध्यप्रदेश में जब से मतदान खत्म हुए हैं , हमारे नेताओँ  कि तरह हि उनके समर्थक भी ग़ायब हैं। मेरे लिए कुछ नहीं बदला , आज भी एक पार्टी के समर्थन में सोशल मीडिया में पोस्ट करता हूँ पर अब कोई  अपने कुतर्क लेकर नहीं आता।  ऐसा लगता है की लड़ाई विचारधारा कि तो कभी थी हि नहिं , लोगों को बरगलाना था सो वो कोशिश कर रहे थे।  शायद कुछ पैसा भी मिला हो , कौन जाने।

मेरे लिए मतदान दिवस बड़ा कठिन रहा लगा कि स्वतंत्रता संग्राम का एक सिपाही हूँ।  आवागमन के बहुत कम साधनों के बीच मैने घर जा कर मतदान  करने की ठानि थी और ६ से ७ घंटे की कष्टप्रद यात्रा के बाद आखिर मैने अपने वोट कि पूर्णाहुति दे हि दि।  मेरे घर में ही हर पार्टी के वोटर देख ख़ुशी भी  बहुत हूई क्यूँकि देश मे हो न हो मेरे परिवार मे विचारों कि अभिव्यक्ति कि पुरी  स्वतंत्रता है. ९ सदस्यों के  संयुक्त परिवार मे से हर पार्टी को वोट गया बिना किसी कुतर्क के , घर में हि डिबेट भी की। काश मेरा देश भी  मेरे घर कि तरह होता।

शाम होते होते कई लोगों से मिला तो कहने लगे कि क्या अपना पैसा लगा के सिर्फ़ वोट डालने आए हो ? बड़ी निराशा हुई कि ये लोग कितने हताश है और मतदान  के महत्त्व से कितने अनजान हैं।  बस में बैठे-बैठे भी बस लोगो के हाथ कि उँगली पर वोटिंग का निशान ढूंढता रहा पर एक न मिला। शाम को कई लोग ऐसे भी मिले जिन्होने अपना वोट बेचा था।  लगा की ये लोग क्या हमारे देश के लिए पाकिस्तान से बड़ा खतरा नहीं  हैं , जरूर है क्युकि चन्द रुपयों के लिये इन्होने कई  लोगों का भविष्य बेच दिया , मै तो शर्मसार हुँ एसे लोगों  का परिचित कहलाकर।

कुछ निराशाओं के बीच आशाए भी हैं।  लग रहा है की अगले चुनाव तक बहुत कुछ बदलने वाला है क्युकी इस चुनाव का परिणाम बड़ा ही प्रेरणास्पद और रोचक होगा।  नेताओ और वोटरों के लिये भी ये समय सिखने का है क्यूकि कइयों के घ्रणित चेहरे उजागर हुए है और अगले ५ साल तक होते रहेंगे।

देखते रहिए और सीखते रहिए क्यूँकि युवा वोटर  ही हमारे भविष्य के वोटिंग पैटर्न का रचयिता होगा।

गुरुवार, 1 मई 2014

कुछ पंक्तिया जिन्हो ने दिल को छुआ।

कुछ पंक्तियाँ , अच्छी लगी, किसी भावुक व्यक्ति ने सुनाई।  पंक्तियों से ज्यादा उनकी आँखों के आंसुओ ने दिल को छुआ।

१. कौम को कबीलों मे मत बाँटों , ये जिंदगी क सफ़र लंबा है इसे मीलो में मत बांटों।
   हमारा भारतवर्ष तो एक अथाह सागर है , इसे ताल और झीलों  में  मत बाँटों।


२.   दिल तो भावों से भरा है मगर घर है कि अभावों से भरा है।
      जी चाहता है कि दिल जोड़ लूँ सबसे मगर ये जिस्म है कि घावों से भरा है।



गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

मतदाता का दायित्व !!

लोकतंत्र में मतदाता क्या क्या काम होना चाहिए इस पर मतदाता ने  कभी सोचा न नेताओ ने।  क्या एक मतदाता को किसी चहरे को चुनना चाहिए या   किसी विचारधारा को या उसे सिर्फ अपने क्षेत्रीय  नेता को चुनना चाहिए ? प्रश्नो का उत्तर कौन देगा ? क्या कभी कोई टीवी पे बहस  चाहेगा ? इलेक्शन कमीशन को क्या जागरूकता फैलानी चाहिए ? सिर्फ वोट देने का पूछने भर से हो जाएगा क्या?

राजनीती में  अपराधियो का आना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है , सोचने का विषय तो ये है की ये वहां पहुंचे कैसे। क्या राजनीतिक पार्टियो को इनके हार जाने का तनिक भी डर  नहीं है , ऐसा क्यों है।  मुझे लगता है ये सब वोटर की करामात है। एक नोटा का अपाहिज विकल्प काफी नहीं है और ये विकल्प आया  भी तो आजादी के ६७ साल बाद , हैरानी की बात है।

राजनीती एक श्रंखला है जिसमे नीचे से चुना हुआ ही देर सवेर ऊपर जाता है।  अगर सिर्फ मतदाता अपने क्षेत्र से एक साफ़ और ईमानदार को चुने तो वो ही आगे चल कर एक साफसुथरी सरकार दे सकता है।  अपराधियो के चुन कर आने की संभावना जिस दिन समाप्त हो जाएगी उस दिन हमारा समाज , देश और राजनीती समृद्ध हो जाएगी।

किसी व्यक्ति विशेष की आरती उतारना हमारे लोकतंत्र की संस्कृति नहीं है।  मतदाता सवाल पूछे , अपने सवाल , अपने क्षेत्र के सवाल और  जिसका जैसा जवाब वैसा वोट। ये मतदाता का काम नहीं है की केंद्र में कौनसी सरकार आएगी उसका ये काम है की कैसी आएगी। जब सारे अच्छे लोग बहुमत में केंद्र में जाएंगे तो सरकार खुद ब खुद अच्छी ही बनेगी।  एक मतदाता से अच्छा उसके क्षेत्र के नेता को कोई नहीं जनता इसी लिए शुद्दिकरण का एकमात्र ये ही उपाय लगता है की अच्छे तो चुने और सच्चे को चुनें।

चुनाव आते ही धीरे-धीरे मुख्य मुद्दो से बड़ी आसानी से ध्यान भटका दिया जाता है।  भ्रष्टाचार , अपराधीकरण, गरीबी, किसानो की आत्महत्या की बात छोड़ धर्म और संप्रदाय की बात कर बड़ी आसानी से बरगला दिया जाता है।  हम कब सीखेंगे अपनी गलतियों से?  अब तो ईमानदार पर भी शक होता है की ये भी आगे चलकर कहीं  बेईमान हो जाएगा , पर सोचना ये है की ये आगे का रास्ता इतना बेईमान करने वाला बनाया किसने की हमें ही किसी पर भरोसा नहीं होता, क्या हम खुद जिम्मेदार नहीं हैं ?

भारत भाग्य विधाता को भाग्य के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए , कही देर न हो जाए।
धन्यवाद!!

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

चुनाव और बदलाव !!

लो भाई चुनाव आ गए!!  क्या अलग है इस बार ? क्यों लग रहा है कि कुछ बदलेगा ? क्यों वोट करने के दिन को छुट्टी मात्र मानाने वाले लोग भी उत्साहित हैं  वोट करने को ? चुनावो से भी कुछ बदला है क्या अपने देश में , सिर्फ पार्टी बदली है जिसने अपने से पहले वाली पार्टी कि परिपाटी को आगे बढ़ाया बस। गरीब अब भी कुछ ख़ास नहीं बदला है १९४७ के गरीब और आज के गरीब में सिर्फ है कि पहले का गरीब आशावान था आज निराशावान।  जिससे पूछो केहता है सब चोर है , लोकतंत्र में निराशा वो भी उनसे जिन्हे ये गरीब ही सबसे ज्यादा वोट देता है और चुन कर भेजता है।  क्यों दो चोर में से एक को चुनना पड़  रहा है ? सोचा है कभी ? क्या ये बदलाव है ?

६५% युवाओ का देश है  हमारा देश , युवा जो बस "आई हेट पॉलिटिक्स " केह के पल्ला झाड़ लेते थे आज सबसे अग्रिम पंक्ति पर है। निराश हो जाता हूँ जब कुछ तथ्यो को देख भ्रम टूट जाता है कि ये चुनाव कुछ अलग है।  विकास कि बात आगे रखने वाली हमारी पार्टिया जैसे जैसे चुनाव करीब आ रहा है जाति और धर्म के नाम पर लोगो को भरमाना शुरू कर चुकी है। नेताओ कि  कहें तो कोई यहाँ पिछड़ा है , कोई हिन्दू , मुस्लिम , यादव जाट है पर अब तक कोई नहीं मिला जो कहे कि वो भारतीय है।  ये ही कारण रहा होगा सैकड़ो साल गुलाम रेहने का , कब बदलाव होगा और हम  स्वतंत्र होंगे ? भ्रष्टाचार के नाम पे लहर का दावा करने वाले अपने घोषणापत्र में इसका उल्लेख करना भी जरुरी नहीं समझते , किया भी तो वो ही ६० साल पुराना जिसका  असर हम देख ही रहे हैं।

किसानो को अपनी फसल का ५०० से १००० रूपये मुआवजा देने का सिर्फ वादा करने वाले ५०० से १००० करोड़ सिर्फ गरीबी हटाने के विज्ञापन पे खर्च कर रहे हैं , क्या मेरे देश के युवा और किसान ने ये नोट किया या बस इस नोट के बदले हरा  नोट लेके अपने ५ साल बड़े सस्ते में बेच देगा ? ८०% गांव में रहने वालो कि बात तो कोई कर ही नहीं रहा और किसी को कोई तकलीफ भी नहीं है , किसान घोषणापत्रों से जैसे गायब हैं  बस 'जय जवान जय किसान ' जैसे नारो में हैं। एक मोबाइल फ़ोन भी बिना ६ महीने गूगल कर न लेने वाला युवा वोट करने के पहले १ घंटा भी जानकारी नहीं जुटता , देश के प्रति ये जस्बा तो विचलित कर देता है क्युकि ये ही ६५% आगे बहुमत होगा।

रुग्ण मानसिकता आज भी हावी है , वो मेरी जात का है।  हम तो कोंग्रेसी / भाजपाई / सपाई / बसपाई है।  कुछ नहीं बदलने वाला।  सब एक ही हैं।  क्या फर्क पड़ता है।  जैसे तर्क देने वालो को कब किसी मनोवैज्ञानिक का सहारा मिलेगा , भगवान् ही जाने।  पुश्तैनी वोटर बड़ा आश्चर्यचकित कर देते है , अंधभक्ति का परिसीमन किसी ने  न किया होगा इसी लिए बढ़ती  जा रही है।   दो शासको के बीच बंटा  मेरा देश छटपटा  रहा है पर इसमें रेहने वालो को इसका कोई इल्म भी नहीं है। जो नेता ५ साल दिखाई भी न दे उसकी भरमाने एवं भड़काने वाली बातो में आ जाने वाले हम कुछ रुक कर सोचते भी नहीं। ५ साल में घर का रंग बदल देने वाले हम  लोग नेता क्यों नहीं बदल देते?  ६० साल पुरानी सड़ांध मारती  पार्टियो को क्यों नहीं बदल देते ? क्यों इतनी निराशा है ? ये सवाल क्या नहीं पूछे जाना चाहिए।

अपराधिक प्रवृति वाले बलात्कारी,  खुनी , डाकू , चोर , भ्रष्टाचारियो से समाज के डर से कोई सम्बन्ध भी न रखने वाले हम भारतीय कैसे उन्ही को अपना प्रतिनिधि बना कर भेज देते है ? अपनी कहूं तो मैं कैसे ३८% दागी प्रतनिधियों वाली एवं विकास का दावा करने वाली पार्टी को वोट दे दूँ , कुछ लोग समझने आए भी पर लगा उन्हें अपनी रुग्णता का उपचार करवाने कि जरुरत है क्युकी वे भ्रष्टाचार , सम्प्रदायिकता , और अन्य  सभी कुरीतियो को एक अभिन्न अंग मानाने को मजबूर कर रहे थे । और ६० साल से ज्यादा शासन करने वाली पार्टी का काम क्या अब तक समझ नहीं आया।  देश को नौकरियों के सृजन से ज्यादा नई  विचारधारा के सृजन कि आवश्यकता है। नौकर बनाना किसी को पसंद नहीं है पर ८०% किसानो का पलायन रोक दे तो तो बहुत कुछ ठीक हो सकता है।  कृषि को  उत्कृष्ट होने कि जरुरत है।  पर हमारे नेता तो उद्योगपति गामी है , पैसा जो वहाँ  से मिलता है।कब हम मालिक बन के वोट करेंगे , जो कि हम हैं ।

बदलाव कि बात तो हो रही है और हमेशा से होती आई है पर क्या बदलना है ये सोचने का विषय है।  सिर्फ सरकार/पार्टी बदलने के लिए वोट करे या देश बदलने के लिए वैसे  इतिहास में देश बदलने के लिए वोट कम ही हुआ है।  कुछ अतिउत्साही चुनाव के नतीजो को आंक कर वोट देते है न कि अपनी पसंद से , विश्वास के साथ कह सकता हु कि उन्हें अपने नेता के बारे में पूर्ण जानकारी होगी भी नहीं।

जो लोग मेरे इस लेख को पढ़े उनसे मेरी यही प्रार्थना है कि वोट उसे दें जिसपर भरोसा हो , जिसके साथ खड़े होने में शर्म न हो क्युकी वो और उसके सहयोगी दागी है , ईमानदारी भी मिल जाएगी , जरा ढूँढना पड़ेगा।  जो हमारे रोजमर्रा के जीवन का सरलीकरण करे व गरीब को रिश्वत देने के लिए साहूकार से कर्ज न लेना पड़े।  विकास कि बात तो करे पर ये भी बताए कैसे और किसका। महंगाई के मुद्दे पर चुनाव लड़  कर विपक्षी पार्टी द्वारा जारी कि गई कीमतो को वापस लेने का भी दावा करे . ये भी बताए कि कही खुद तो काले धन से काम नहीं कर रहा है , क्यों कि काला धन वापस लाना फिर उसके बस कि बात नहीं रह जाएगी . जाति तो कभी नहीं जाएगी पर कही देश हाथो से न चला जाए , अपराधियो के भड़काऊ भाषणो के पीछे भागने से कही ये अपराधीकरण कि आंच हमारी चौखट  तक न आए।  कृपया अपना वोट न बेचें , क्युकी चंद पैसो से आपके और आपके बच्चो के भविष्य कि कीमत नहीं लगाई जा सकती।

मुद्दे और नेता पहचाने , अच्छे चरित्र और विचारो को वोट दें !! धन्यवाद !!

जय हिन्द !!

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

निवेदन !!

मेरी इस लिखने कि हिमाकत का असर हुआ भी तो किस पर , खुद मुझ पर।  है न हैरान करने वाली बात।  बात निकाली ही ये बताने के लिए है कि मेरा लिखने का उद्देश्य सिर्फ अपने विचारो को व्यक्त करना और हिंदी को सम्मान देना है , मेरे विचार भी स्वयं मेरे ही लिए है ताकि आने वाले वर्षो में मै  खुद कि मानसिकता में विकास और बदलाव देख सकुं। सच ये भी है कि फेसबुक पर साझा करता हूँ  पर आपको अच्छा न लगे तो छोड़ दीजिए और एक हंस कि भांति  अपने काम कि चीज़ ले के आगे बढ़िए , बढ़ते रहिए।

मेरे कुछ मोदी और राहुल भक्त दोस्तों   को बड़ी ठेस पहुची, केहने लगे इसके बारे में तो लिखते हो उसके बारे में क्यों नहीं।  समझ आ रहा है पत्रकारो का क्या होता होगा, अरे भाई मै  कोई पत्रकार तो नहीं बस मलंग हुँ जो ठीक लगा वो कहा जो नहीं लगा वो भी बता दिया।  आखिर मैंने कब कहा कि सिर्फ मेरे विचार ही सही है।

कृपया मुझे मोदी या राहुल गांधी विरोधी न समझे न ही अरविन्द केजरीवाल समर्थक।  देश हित में जो मुझे एक नागरिक होने के नाते पूरी ईमानदारी से सही लगता है वो ही लिखता हूँ, व्यक्ति पूजा कभी कि नहीं और चापलूसी मुझे आती नहीं। कसम खा रखी  है जिस भी पार्टी का अच्छा इंसान (जिसका अपराध और अपराधी से दूर दूर तक  नाता न हो ) चुनाव में मेरे क्षेत्र से लड़ेगा उसे वोट दूंगा , अब ये पार्टियो के चिंतन का विषय है कि मेरे जैसे कितने सोचने वाले है और वो किसे चुनेंगे कि हमारा वोट उन्हें मिले।

चुनाव का मौसम है , बड़ी जोश कि गर्मी है बस इतना ध्यान रखना इस गर्मी में कही आपसी रिश्ते न झुलस जाए और हमारे नेता हमेशा कि तरह फूट डाल  के शासन कर ही न ले।  आखिर हम ही तो जीतने देंगे।  कभी सोचता हु वो चुनाव कब होगा जब जनता जीतेगी।  खैर हमें क्या। समझ आता है कितना पीड़ादायक होता होगा इस ६६ साल पुराने सिस्टम में थोड़ी सी भी आवाज करना , मेरी थोड़ी आवाज निकल रही है तो मेरे अपनों को पीड़ा हुई।  अच्छा है सरकार तक आवाज नहीं पहुची वर्ना हश्र तो सबको पता ही है, लोकतंत्र ही है न ?

फिर से निवेदन है कि मेरे विचार सिर्फ मेरे लिए है , भूल चूक लेनी देनी माफ़।  और हाँ कृपया ये न सोचे अब नहीं लिखूंगा , सिलसिला चलता रहेगा , जो गलत होगा उसे गलत बताने में कैसा डर और शर्म।  मेरा देश है , जैसा भी है एक दिन आजाद जरुर होगा।

कृपया अपने पसंदीदा नेता के साथ -साथ मुझ अदने  से मित्र को भी अपनी बात केहने कि आजादी का समर्थन दीजिये और कुछ भी दिल पे न लीजिए , अपना तर्क जरुर दीजिए वैचारिक शुद्धि के लिए ।

आपका अपना मित्र ,
अर्पित


गुरुवार, 27 मार्च 2014

वोटर और कार्यकर्ता

चुनाव आते -आते लग रहा है वादों का स्तर तो बढ़ रहा है पर राजनीती और व्यक्तियो का स्तर दिन ब दिन गिरता ही जा रहा है।  छींटाकशी का दौर है ,  कोई किसी को चोर केहता है तो कोई किसी को पाकिस्तानी एजेंट।  एके -४९ और नमो-५६ के बीच आम नागरिक बड़े भ्रम में है , पर ये भ्रम नया कहाँ  है मै  तो जब से थोडा समझने लगा तब से देख रहा हूँ . वोटर कि  मनोस्थिति  को नमो-स्थिति  में लाने के ये प्रयास सराहनीय तो नहीं है , क्युकी विचारधाराओ का स्वछंद विचरण ही असल लोकतंत्र का परिचायक है।  मतदाता किसी एक विचारधारा को अपनाए और अगले पांच साल फिर कही भीड़ में गुम  हो जाए. ये भी कमाल ही है न कि एक भारतीय नागरिक चुनाव आते ही मतदाता हो जाता है वर्ना उसकी एक नागरिक के रूप में पहचान  सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही तो है . जब कोई कार्यकर्ता जिसे कई बार कई कारणो से असामाजिक तत्व पाया , हमारे घर के दरवाजे पर वोट मांगने आता है अपने पवित्र नेताजी के लिए तो समझ नहीं आता किस भावना से वोट दें।  डर  तो लगता ही है . पर विकल्प ही क्या है।

 वोटर और कार्यकर्ता में मुझे थोडा संशय है। पुश्तैनी वोटर सुनकर चकित हो जाता हूँ , मुझे तो लगता था कि सिर्फ कार्यकर्ता वफादार होता है , राष्ट्र विरोधी गतिविधियो के बाद भी अपनी पार्टी से प्यार करता है (देश से नहीं ) . मगर जब अपने मित्रो से वोट देने के बारे में विचार जाने तो कुछ पीढ़ियों से पार्टी भक्ति करते परिवारो से निकले , समझ नहीं आता लोग ऐसा क्यों केहते है कि शिक्षा से समझ आती है।  ऐसे वोटरो का वोट कोई लहर नहीं देखता बस परिवार देखता है , देश से इन्हे क्या। शक तो होता है कोई नई  ईमानदार पार्टी पिछले ६६ सालो में पनप क्यों नहीं पाई , पनपने ही नहीं  दिया गया या हमारे देश  से ईमानदारी अंग्रेजो के साथ चली गई थी , सोचने वाली  बात तो लगती है।

एके ४९ कि बात करे तो मुझे हिम्मत दिखती है , कद्दावर शब्द को चुनौती दे डाली है। सवाल पूछ पूछ कर नाक में दम कर रक्खा है , पता नहीं कहाँ से दस्तावेज भी ले आता है हमारी सीबीआई को तो कभी न मिले थे ये , न ही धुरविरोधी कांग्रेस या बीजेपी को।  शक तो तब होता है जब कोई जवाब देने भी नहीं आता , सवाल जवाब तो लोकतंत्र का बहुत ही जरूरी अंग होना चाहिए। बेचारे वफादार कार्यकर्ताओ को छोड़ रखा है जो बस  झाकते है।  कभी तो केहते है ईमानदार व्यवस्था कभी हो ही नहीं सकती और कभी दूसरी पार्टी ज्यादा बुरी है हम कम बुरे है बताने में लगे है।  कभी तीखा सवाल आजाए तो केहते है उनसे सवाल क्यों नहीं पूछते , अरे भाई उनसे भी पूछ लेंगे पहले जवाब तो दो , पर नहीं।  कई सवाल अँधेरे में है और लग रहा है चुनाव तक रहेंगे , और हमारा अंधभक्त वोटर ठप्पा लगा आएगा , और जो अंधभक्त नहीं है वो इस आस में कि अगले ५ साल में शायद जवाब मिले कम बुरे को चुनेगा (कम बुरे से मतलब ज्यादा मौका नहीं मिला लूटने का ) .

सवाल पूछने वाले भी सावधान रहे , कही स्याही और अंडे न  पड़ जाए. काले झंडे पहली बार बाहर निकले है , पहले इस तरह का विरोध तो नहीं हुआ था , दोनों पार्टिया खुश थी शांति से एकदूसरे ही झूठी बुराई कर के काम चल रहा था , बड़ा भाईचारा था।  हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर वोटर बाटना भी क्या कला थी / है।  सेक्युलर वोटर बड़ा खतरनाक है (देश हित में नहीं  ), उसे जाती में बांटने से वो ये भी नहीं देख पाता कि जिस  हिंदूवादी पार्टी का वो भक्त है उसी के लोग पवित्र हिन्दू मंदिर के बाहर अंडे और गालिया फेंक रहे है।  ये ही तो अंधभक्ति है। वो ये भी नहीं देखता कि मुसलमान समुदाय का ६० साल से पीछे होना किसकी देन है।

मेरे जैसा भी एक वोटर है जो बस काश में  जी रहा है।  काश मुझे सवालो के जवाब मिलते , मेरा गाव अब भी क्यों पीछे है ? नालिया , स्ट्रीट लाइट  क्या होती है वहाँ  जा कर कोई परिभाषित करे . हवा से चल रही है क्या सब पार्टियाँ ? पैसे का हिसाब मांगना क्या गलत है जब नेता हमें मालिक बोलते है?  मेरा टैक्स का पैसा कहाँ लग रहा है ? देश में महंगाई के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाले नेताओ को अरबो रूपये अपने मार्केटिंग में खर्च करने में क्या कोई शर्म आती है ? नेता को सबसे ज्यादा डर जनता से क्यों लगता है, सामना क्यों नहीं करते ? और फिर पांच साल  अंतर्ध्यान रहने के बाद किस मुह से वोट माँगने आजाते हो ?

बड़े दिल  वाली है मेरे  देश कि जनता , खुद देश लुटवाने हो तैयार है बिना किसी तैयारी के अपने जीवन के पांच साल किसी के हवाले कर रही है । अंग्रेज क्या बुरे थे ?



शुक्रवार, 21 मार्च 2014

किसकी सोच ?




आजकल खूब चल पड़ा है। मीडिया को गाली देना, लगता है नया सा है , पर फिर मैंने सोचा क्या सचमुच नया सा है?  इमर्जेंसी , मनसे एवं शिवसेना द्वारा मीडिया हाउस में तोड़फोड़ , उत्तरप्रदेश में तो प्रसारण ही रोक देना क्या ये सब गाली के प्रतीक नहीं है या उससे भी ज्यादा , एक कदम आगे।  कौन केहता है भारत पिछड़ गया है।  मीडिया भी क्या करे, हमारे हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट को तो केस निबटाने  कि फुर्सत नहीं तो मीडिया खुद ही निबटाता है।  सही भी है २० २५ साल कौन प्रतीक्षा करेगा , कइयो का तो रिटायरमेंट आ जाएगा .

सच तो ये है कि मीडिया भी बेशरम  या बेरहम हो गया है , खबरो के नाम पर विज्ञापन चला रहे  है और लगता है सारी खबरे चार महानगरो में सिमट के रह गई है। बताया गया था ८०% भारत गाँव  में बसता है मगर समाचारो में तो १% भी नहीं है , क्या ग्रामीण क्षेत्र ज्यादा उपयुक्त है जीवन गुजरने के लिए ? कुछ भी अच्छा -बुरा नहीं  होता , या अब वहाँ कोई  नहीं रहता? क्षेत्रीय अखबार तो जैसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री एवं रुलिग पार्टी का   प्रशस्ति गान करने बैठे है , जो बुराइया एक नागरिक देखता है वो मीडिया क्यों नहीं देखता क्या ये भी हमारे कानून कि तरह अँधा हो गया है।

कुछ नेता आए है , केहते है डेवलपमेंट करेंगे, पर किसका ? देश को किसी कॉर्पोरेट कंपनी कि तरह चलने का वादा बड़ा लुभा रहा है , समझ नहीं आता कब कोई   हमारे सामाजिक विकास की बात करेगा . बोलते है हमारा देश एक युवा देश है , पर  जो दीखता है उससे लगता है कि भटके हुए युवाओ का देश है। आज  जहाँ सारी  जानकारी और  इतिहास हमारे हाथो में है और कुछ मिनिटो में सारी जानकारी हासिल कि जा सकती है ,वहाँ हम इडियट बॉक्स देख रहे है जो बस भरमा रहा है।  किसी होटल में पसंदीदा खाने कि तरह खबर परोसी जा रही है , जो आपकी मानसिकता को तुष्ट करे ऐसी खबर देखो।  कमाल है खबर में भी एकरसता न रही , खबर कैसे अलग हो सकती है ?

६० सालो में तो दुनिया बदल जाती है पर हमारी सोच क्यों नहीं बदली ? फूट डालो शासन करो २६० साल पुराना हो गया पर अब भी क्या काम करता है हम भारतीयो पर।  जाती धर्म के नाम पर किसी को भी मारने और मरने पर उतारू हम भारतीय गर्व कैसे कर लेते है ये शोध का विषय  होना चाहिए।

समाचार भी अभिव्यक्ति का साधन बन चूका है पर सिर्फ कुछ नेताओ  पूंजीपतियो को ही ये   अधिकार प्राप्त है और जो  लोग सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति करना चाहते है उन्हें रोकने का प्रयास कितनी बार किया जा रहा है , धन्य है भारत सरकार।   विशुद्ध खबर न जाने कहाँ खो गई , सोच का निर्माण करना भी एक कला है , तो क्या न्यूज़ रिपोर्टर भी अभिनेता हो गए  है. नेता और अभिनेता का ये संगम कमाल है , नेता करवाता है और अभिनेता अभिनीत करता है , वाह्ह !! .
जब मेरे आस पास के लोगो से बात करता हु तो उनकी भाषा और विचार  शब्दशः वही होते है जैसे कि हमारा समाचार अभिनेता बोलता है, लगता है मेरे देश के लोगो के पास रुक कर सोचने का भी समय नहीं है . युवा अपनी भागदौड़ में सोचने का काम भी आउटसोर्स कर चूका है .

केजरीवाल ने जब मीडिया को आइना दिखाया तो अपनी ही शक्ल देख के घबरा और बौरा गया और किसी छोटे से बच्चे कि तरह बदले कि आग में जलने लगा।   सोच कर भी विचित्र लगता है कि मीडिया , हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बदले जैसी अपरिपक्व हरकत भी कर सकता है।   बदला लेने कि ये कार्यवाही ही केजरीवाल के दावो को बल दे रही है , पर ये बात सोचने से ही समझ आती है।   आउटसोर्स कि गई सोच में ये ख़याल कैसे आएगा , वो ये कभी नहीं सोचेगी कि जिन राजनीतिक पार्टियो का बीजेपी विरोध कर रही थी उन्ही के गुंडामण्डित छवि के लोगो को गले लगा कर खुद को पहले वाली सरकार जैसा बना रही है।   सुना था जहर ही जहर को काटता है तो क्या ये काला पैसा जो चुनाव में लगा है ये ही काले पैसे को भारत वापस लाएगा . आरोप नहीं लगा रहा हु , अँधेरा  भी काला ही होता है और जहां कुछ न दिखे वो अँधेरा ही तो है . मीडिया और नेताओ के सामूहिक कृत्य से ये चुनाव अँधेरे में ही लड़ा जायेगा , बड़े दुःख  कि बात है।

हमें सैकड़ो सालो से दुसरो कि सोच जीने कि आदत है , पहले मुगलो कि , फिर अंग्रेजो कि और अब मीडिया कि।   खुद कि सोच बनाने कि छटपटाहट से मै तो जीत गया पर हमारा युवा देश जो इडियट बॉक्स के सामने बैठ कर अपने आउटसोर्स हुए काम का अवलोकन कर रहा है , उसका वोट तो देश के लिए एक आतंकी हमले सा प्रतीत होता है।  

ध्यान से देखो , खुली आँखों में के इस अँधेरे को . ६० सालो में क्या हुआ और किस चहरे के पीछे कौन है .

मंगलवार, 18 मार्च 2014

लहर और मीडिया

आम चुनाव से पहले क्या देश में बीजेपी की लहर है? अगर आप टीवी चैनलों को देखें, तो यह हर नए दिन एक व्यक्ति को निर्णायक और करिश्माई व्यक्तित्व के रूप में दिखाता है, जिसके पास देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करने और अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाई पर ले जाने का नक्शा तैयार है. लेकिन क्या यह सच है या फिर एक व्यक्ति को मृग मरीचिका बनाने के लिए मीडिया द्वारा तैयार किया गया हौवा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा बेदाग घोषित करने के बावजूद खुद पर लगे 2002 के गुजरात दंगे का धब्बा ढोना होगा.

16 मई को ही यह तय होगा कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं. लेकिन इस वक्त जो बात लोगों को परेशान कर रही है, वह मीडिया या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कुछ हिस्से द्वारा मोदी का किया जा रहा महिमामंडन है. इसमें कोई शक नहीं कि मोदी एक निर्णायक और कुशल नेता के रूप में सामने आए हैं जो देश के आर्थिक परिदृश्य को बदल सकता है, जैसा कि वह खुद हिंदुत्व की अपेक्षा विकास पर ध्यान दिए जाने की जरूरत पर बल देते हैं.

लेकिन यह छिपा हुआ तथ्य भी है कि मोदी 2002 के दंगे के दाग को मिटाने के लिए जनता के बीच अपनी छवि बनाने के लिए काम कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि सात रेस कोर्स रोड का रास्ता इतना आसान नहीं होगा? ब्रांड मोदी नए और पुराने मीडिया की रचना है. सोशल मीडिया पर मोदी एक ब्रांड हैं. ट्विटर पर उनके 35 लाख से अधिक फॉलोअर हैं, जबकि फेसबुक पर 1.1 करोड़ प्रशंसक हैं.

लेकिन यह पुरानी खबर है. मोदी का मीडिया किस तरह प्रचार कर रही है. मोदी के पीएम बनने की राह में एकमात्र खतरा नई पार्टी आम आदमी पार्टी (आप) है. कांग्रेस जहां डूबता जहाज लग रही है और इसके कई वरिष्ठ नेता राजनीति का स्वाद नहीं चखना चाहते, न ही तीसरा मोर्चा में कोई मजबूत नेता नजर आया है.
बीजेपी के लिए 'आप' ही एकमात्र खतरा है और मीडिया सही या गलत तरीके से इसके संस्थापक अरविंद केजरीवाल को बदनाम कर रही है. यह माना हुआ तथ्य है कि मीडिया एक महत्वपूर्ण हथियार है जो जनता के मन को बदल सकती है, लेकिन क्या सिर्फ एक नेता के पक्ष में बात करना उचित है?

केजरीवाल की उस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता जिसमें उन्होंने मोदी का प्रचार करने के लिए मीडिया को जेल भेजने की बात कही थी, लेकिन उन्होंने मीडिया की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया है कि क्या मीडिया प्रासंगिक है?

इस सवाल का जवाब सिर्फ मीडिया ही दे सकती है और यह कठिन होगा. लेकिन मीडिया खासकर टेलीविजन चैनल यह महसूस नहीं कर रहे कि केजरीवाल पर रोजाना किए जा रहे प्रहार से इसकी विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है.

क्या मीडिया बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए द्वारा 2004 में चलाए गए इंडिया शाइनिंग प्रचार को भूल गई? पूरा अभियान बीजेपी पर भारी पड़ गया और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार सत्ता में आई थी.

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

नारी कि शक्ति !!

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी महिलाओ को शत शत प्रणाम !! भारतीय संस्कृति में नारी के महत्त्व को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता।  माँ कि बहुत याद आ रही है सुबह उठ कर सबसे पहले फ़ोन लगाया , बधाई सुन कर बड़े अनमने अंदाज में उन्होंने सुना और फिर से मेरी फिक्र में लग गई , हमेशा से गर्व करता हु कि कैसे पिछले ३० सालो से बगैर किसी छुट्टी के काम में लगी है। छोटी छोटी बातो पे खुश हो जाती है , सीखने लायक बात है।  यहाँ तो बड़ी बड़ी बाते भी ख़ुशी नहीं देती , सकारात्मकता पे नकारात्मकता हावी है।  शायद इस सकारात्मकता में माँ का साथ नहीं इसलिए नकारात्मक लगाती है।  जब घर से लौटता हु तो मेरे बॉस कि तरह डेडलाइन पर बात  करती है , लौटने कि डेडलाइन।  और डेडलाइन को पूरा न करो तो बड़ी निराश हो जाती है। मेरे बचपन के किस्से ही अब एक कहानियो कि किताब है , कितना बारीकी से देखा है।  एक अलग पहलू दीखता है जब भी सुनाता हु।
 अच्छा लगता है कि पिताजी से ये सीखा कि महिलाओ कि बहुत इज्जत करनी चाहिए, कभी झगड़ा होते नहीं देखा मैंने और मेरी छोटी बहिन ने ।जब दूसरे दम्पत्तियो को झगड़ते देखते है तो लगता है कुछ तो गलत हुआ है और हम एक पेरफ़ेक्ट कपल कि संताने है। अभी अभी शादी हुई है पत्नी से खूब झगड़ा भी होता है , शायद इस लिए कि हम अपने अपने माता पिता कि तरह क्यों नहीं है , पर अब लगता है कि ये छोटी छोटी कहा सुनी भी एक प्रेम का प्रतीक ही है।
 ऐसे लोगो से मिला जिन्होंने नारी के बारे में बड़ी छोटी बात कि तो लगा इनके पिताजी कि गलती होगी। महिलाओ से हिंसा करने वाले कितने क्रूर होंगे। गुस्सा आता है जब ही कोई घ्रणित घटना सुनाता हु। सड़क पैर कई लोगो को देख लगता है कि क्यों बलात्कार होते है और कौन बलात्कारी हो सकते है। चिड़ियाघर कि तरह कोई बलात्कारी घर भी बना दो जहा राह चलते इन विक्षिप्त लोगो को रखा जा सके और लोग अपने बच्चो को बताए कि ऐसा नहीं बनाना है।   अरे भाई अब तो सबका फेवरट आमिर खान भी केह रहा है , अब तो सुधर जाओ।
कानून बनाने से सब कुछ ठीक हो जाएगा , ऐसा बोलते है सब।  त्वरित निर्णय और सजा ही समाधान है।  पर मुझे लगता है कि अगर मेरे पिता कि तरह अगर हर पिता अपने बच्चो को नारी कि महिमा एवं महत्तव का पाठ पढ़ाए तो उदाहरण  हर घर में मिल जाएगा और बच्चा बड़ा होकर इंसान बनेगा। नारी शक्ति का प्रतीक है और उसे और शक्तिशाली बनाए हम।  कम  पत्नी तो शक्ति का बहुत  बड़ा प्रतीक है ही , सब जानते है और मानते भी है।

बुधवार, 5 मार्च 2014

पत्थरो कि भाषा!!

आज कुछ लिखने का मन किया , हिंदी में!! सोचा देखे एक ब्लॉग शुरू कर सकते है या नहीं , आपकी आलोचना के लिए तैयार हु . अच्छा रहा तो ये अच्छी आदत (निंदा कि नहीं , लिखने कि )को डेवेलोप करूँगा -

आज सुबह के न्यूज़ पेपर पढ़ रहा था .. सब आम आदमी पार्टी को रावण और बीजेपी को राम दिखा रहे है , सही भी है वरना मध्यप्रदेश में BJP कि सरकार को क्या जवाब देंगे . सुबह सुबह रामायण का ये चरित्र चित्रण देख कर दंग  रह गया क्युकी सोशल एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर मैंने सब कुछ देखा है , दोनो पहलु !! मोदी को जीतना है किसी भी कीमत पर , बस ये ही एक धेय्य है . गुजरात कि सीमाए सील क्यों नहीं कर देते , मोदी बोलने पर अर्थदंड भी लगा दो .
इंदौर से हु और हमेशा से गुंडों और नेताओ कि तस्वीरे पुरे शहर में देख कर विचलित हो जाता हु . नेता जनता का प्रतिबिम्ब होना चाहिए पर क्या इंदौर कि सारी जनता गुंडा समर्थक है ? नहीं कोई नहीं . मीडिया ने अभी अभी ये मुद्दा उठाया तो पुलिस ने भी कुछ पाकेटमारों जिनका कोई आका नहीं है को पकड़ कर खाना पूर्ति तो कर ही दी है . कुछ बड़े गुंडों को पकड़ा तो फ़ोन  घनघना उठे और वो गुंडा विजय पताका ले के थाने से बहार आ गया .
अब अमिताभ बच्चन जी कि बात मानाने का मन नहीं करता , "कुछ दिन कैसे गुजारे गुजरात में ?" गाइडलाइन भी बता दो . बच्चो सा हठ है बीजेपी समर्थको में , जिद पकड़े है कि मोदी ही चाहिए वरना शायद अपना सर दीवार से न ठोक ले. इस घटना से सवाल तो कई उठते है, क्या छुपा रहे हो गुजरात में ? बता दो शायद हम भी कुछ दिन गुजार ले.

धन्यवाद ,
अर्पित व्यास ,एक युवा , उम्र २८ साल